________________
.१५० : जैन तर्कशास्त्र में अनुमान-विचार जाए कि गृहीतग्राही होनेसे वह प्रमाण नहीं है तो यह कथन भी ठीक नहीं है, क्योंकि विशेष परिच्छित्ति करने के कारण वह अपूर्वार्थग्राही है । स्पष्ट है कि प्रत्यक्ष
और अनुपलम्भ द्वारा साध्य और साधनका सम्बन्ध एकदेशसे ही जाना जाता है और तर्कसे वह सामस्त्येन अवगत किया जाता है । दूसरी बात यह है कि समारोप-व्यवच्छेदक होनेसे भी तर्क प्रमाण है। अतः साध्य और साधनके सम्बन्ध ( अविनाभाव ) विषयक अज्ञानको दूर करने रूप फलमें साधकतम होनेसे तर्क प्रमाण है।
माणिक्यनन्दिने' अकलंक और विद्यानन्दका समर्थन करते हुए प्रतिपादित किया है कि व्याप्तिका निश्चय तकसे होता है जो उपलम्भ तथा अनुपलम्भपूर्वक होता है। उसका उन्होंने उदाहरण दिया है-जैसे अनलके होनेपर ही धूमका होना और अनलाभावमें धूमका न होना। इनकी विशेषता है कि इन्होने उस व्याप्तिसम्बन्ध- अविनाभावको सहभाव और क्रमभाव नियमरूप बतलाया है । सहचारियों ( रूपरसादिकों ) और व्याप्य-व्यापकों (शिंशपात्व-वृक्षत्वादिकों )में सहभावनियम होता है तथा पूर्वचर-उत्तरचरों और कार्यकारणोंमें क्रमभावनियम । प्रतीत होता है कि माणिक्यनन्दिने धर्मकीर्ति द्वारा व्याप्तिस्थापकरूपमें प्रतिपादित तादात्म्य और तदुत्पत्ति सम्बन्धोंके स्थानमें सहभाव और क्रमभावनियमकी स्थापना करके उनके उक्त सम्बन्धोंको अव्याप्त बतलाया है। प्रकट है कि रूपरसादि सहचरों और शकदोदय-कृत्तिकोदयादि पूर्वोत्तरचरोंमें न तादात्म्य सम्भव है और न तदुत्पत्ति । पर उनमें अविनाभाव होनेसे गम्यगमकभाव माना गया है। प्रभाचन्द्रने भी अपनी व्याख्या द्वारा उनके प्रतिपादनको सम्पुष्टि की है।
देवसूरिने व्याप्तिसम्बन्धको त्रिकालवर्ती बतलाते हुए कहा है कि उसका ग्रहण सन्निहितग्राही प्रत्यक्षसे और नियतदेशग्राहक अनुमानसे सम्भव नहीं है । उसका ज्ञान एकमात्र तर्क ( ऊह से ही हो सकता है । उनका उदाहरण माणिक्यनन्दिके ही समान है।
१. ५० मु० ३।१९, ११, १२, १३, १६, १७, १८ । २. सहक्रमभावनियमोऽविनाभावः । सहचारिणोाप्यव्यापकयोश्च सहभावः । पूर्वोत्तर
चारिणो: कार्यकारणयोश्च कमभावः ।
-५० मु० ३।१६, १७, १८ । ३. प्रमेयक० मा० ३३१९, ११, १२, १३ । ४. उपलम्भानुपलम्भसम्भवं त्रिकालोकलितसाध्यसाधनसम्बन्धाद्यालम्बनमिदमस्मिन्सत्येव
भवतीत्याकारं सवेदनमूहापरनामा तर्क इति । "यथा यावान्कश्चिद्धमः स सों वह्नौ सत्येव भवतीति। -प्र० न० त० ३७, ८ तथा इसको टीका स्यादा०र० पृ० ५०४-५१५ ।