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१४८ : जैम तर्कशास्त्रमें अनुमान - विश्वार
प्रतिपादन किया कि प्रत्यक्ष और अनुपलम्भ पूर्वक जो 'उसके बिना वह सम्भव नहीं' इस प्रकारका सम्भव प्रत्यय ( ज्ञान ) होता है वह तर्क है। यहां 'प्रत्यक्ष' से उन्हें उपलम्भ ( अन्वयज्ञान ) अर्थ अभिप्रेत है तथा उपलम्भसे प्रत्यक्ष और अनुमानादि प्रमाण विवक्षित हैं, क्योंकि प्रत्यक्षगम्य साध्य-साधनोंकी तरह अनुमेयादि साध्य साधनों में भी व्याप्ति होती है। सूर्य में गतिशक्ति गतिमत्वहेतुसे और गति - मत्व देशाद्देशान्तरप्राप्ति हेतुसे अनुमित होता है । अकलंकके प्रत्यक्ष और अनुपलम्भ शब्द यद्यपि प्रशस्तपादके अन्वय और व्यतिरेकके स्मारक हैं । पर उनमें अन्तर है । अकलंकके प्रत्यक्ष और अनुपलम्भ शब्द ज्ञान-परक हैं और प्रशस्तपादके अन्वय और व्यतिरेक ज्ञेयसूचक । यतः जैन दर्शनमें ज्ञानको ही ज्ञानका कारण माना गया है, ज्ञेयको नहीं । अतः अनुमानका उत्पादक तर्क और तर्कके उत्पादक प्रत्यक्ष और अनुपलम्भ ज्ञानात्मक हैं। तथ्य यह कि व्याप्ति अविनाभाव ( अर्थात् साध्य के अभाव मे साधनका न होना और साध्यके सद्भावमें हो साधनका होना ) रूप है और उसे तर्क ही ग्रहण कर सकता है, क्योंकि वह सर्वोपसंहारवती ( अर्थात् जितना धूम है वह अन्य कालों और अन्य देशोंमें अग्निका ही कार्य है, अनग्निका नहीं, इस प्रकार सर्वदेश और सर्वकाल वर्तिनी ) होती है । उसका ज्ञान प्रत्यक्ष द्वारा सम्भव नहीं हैं?, कारणकि प्रत्यक्ष सन्निहित और वर्तमानको ही जानता है, असन्निहित एवं अवर्तमान ( अतीत अनागत ) को नहीं । अनुमान द्वारा भी व्याप्ति ग्रहण असम्भव हैं, क्योंकि व्याप्तिज्ञान हुए बिना अनुमानकी उत्पत्ति नहीं हो सकती । अन्य अनुमानसे व्याप्तिग्रहण मानने पर अनवस्था आती है । आगमादि प्रमाणका विषय भिन्न होनेसे उनके द्वारा भी व्याप्तिनिश्चय अशक्य है । अतः व्याप्तिज्ञानके लिए परोक्षात्मक तर्कको पृथक् प्रमाण स्वीकार करना अनिवार्य है ।
१. सत्यप्यन्वयविज्ञाने स तर्कपरिनिष्ठितः । अविनाभावसम्बन्धः साकल्येनावधार्यते ॥ सहदृष्टैश्च धर्मैस्तन्न विना तस्य सम्भवः । इति तर्कमपेक्षेत नियमेनैव लैंगिकम् ॥ तस्माद् वस्तुबलादेव प्रमाणं...।
- न्यायविनि० का० ३२६ ३३१, अ० प्र० पृष्ठ ७४ ।
२. अविकल्पधिया लिगं न किंचित्सम्प्रतीयते ।
नानुमानादसिद्धत्वात् प्रमाणान्तर मांजसम् ॥
न हि प्रत्यक्षं 'यावान् कश्चिद्धमः कालान्तरे देशान्तरे च पावकस्यैव कार्यं नार्थान्तरस्य ' इतीयतो व्यापारान् कर्त्तुं समर्थ सन्निहितविषयबलोत्पत्तेरविचारकत्वात् । नाप्यनुमानान्तरम्, सर्वत्राविशेषात् । न हि साकल्येन लिंगस्य लिगिना व्याप्तेरसिद्धौ क्वचित् किंचिदनुमानं नाम |
- लघीय० स्वो० वृ० का० ११, १२, अ० प्र० पृष्ठ ५ ।
३ व्याप्तिं साध्येन हेतोः स्फुटयति न विना चिन्तयैकत्र दृष्टिः, साकल्येनैष तर्कोऽनधिगत
विषयः तत्कृतार्थैकदेशे ।
लषीय० का० ४६, अ० प्र० ।