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१३६ : जैन तर्कशास्त्रमें अनुमान - विचार
नाभावो अथवा अन्यथानुपपन्न बतलाया गया है।' इसका अर्थ हैं जो साधन साध्यके अभाव में न हो, उसके होने पर ही हो वही गमक हैं और उसका साध्य गम्य । २ पर जो साधन साध्य के अभावमें उपलब्ध है वह उस साध्यका साधन नहीं और वह साध्य भी उस साधनका गम्य ( विषय ) नहीं - दोनों ही क्रमशः साघनाभास तथा साध्याभास हैं । वस्तुतः इस अविनाभाव के रहनेसे ही धूम, अग्निका गमक होता है । अतः धूम साधन है और वह्नि साध्य । किन्तु 'अयोगोलक धूमवाला है, क्योंकि उसमें वह्नि है' इस अनुमान में हेतुरूपसे प्रयुक्त वह्नि धूमके अभाव में भी पायी जाती है । इस कारण वह धूमकी अविनाभाविनी न होनेसे वह उसकी गमक नहीं है । अत: वह साधनाभास हैं और धूम साधनाभासका विषय होनेसे साध्याभास । प्रत्यक्ष है कि अयोगोलक में वह्नि होने पर भी धूम नहीं होता । अतएव 'अग्नि अनुष्ण है, क्योंकि वह द्रव्य है इस अनुमानगत अनुष्णत्व साध्यकी तरह उक्त अनुमान में प्रयुक्त धूम-साध्य प्रत्यक्षविरुद्ध - साध्याभास है । तथा उसे सिद्ध करनेके लिए दत्त 'अग्नि' हेतु प्रत्यक्षबाधित नामक कालात्यापदिष्ट साधनाभास है । उसमें आर्द्रेन्धनसंयोगरूप उपाधिकी कल्पना करके उसके सद्भावसे अग्निमें व्यभिचारका निश्चय और व्यभिचार के निश्चयसे व्याप्तिके अभावका निश्चय जैन तार्किक नहीं करते। उनका मन्तव्य है कि उसमें मात्र परम्परा - परिश्रम और अन्योन्याश्रय है । यह देखना चाहिए कि वह्निका धूमके साथ अविनाभाव है या नहीं ? स्पष्ट है कि वह्नि अंगारे आदिमें धूमके बिना भी उपलब्ध होती है । अतः वह्निका धूमके साथ अविनाभाव नहीं है और अविनाभाव न होने से वह साधनाभास है । इसी तरह 'गर्भस्थो मैत्रीतनयः श्यामो भवितुमर्हति मैत्रीतनयत्वात् ' यहाँ भी मंत्रीतनयत्वहेतुका श्यामत्वसाध्य के साथ अविनाभाव नहीं है और अविनाभावके न होनेसे मैत्रीतनयत्वहेतु हेत्वाभास है" । प्रकट है कि गर्भस्थ पुत्रको मैत्रीका पुत्र होनेसे श्याम होना चाहिए, यह अनिवार्य नहीं है, क्योंकि उसके गोरे
१. साध्याविनाभावित्वेन निश्चितो हेतु : ।
- १० मु० ३।१५ |
साधनं प्रकृताभावेऽनुपपन्नं ततोऽपरे ।
- अकलंक, न्यायविनि० २।२६६ तथा प्रमाणसं० ३।२१ ।
२. तत्रान्यत्रापि वाऽसिद्धं यद्विना यद्विहन्यते ।
तत्र तद्गमकं तेन साध्यधर्मी च साधनम् ॥ न्यायवि० २।२२१ ।
३. वही, २ ३४३, २।१७२ ।
४. धर्मभूषण, न्या० दी० पृ० ११० । ५. वही, पृ० ३२ ।