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व्याप्ति-विमर्श : १३५
निश्चय हो जाता है। यथा धूमके स्वाभाविक सम्बन्धमें उपाधिके अनुपलम्भसे उसके अभावका निश्चय किया जाता है। इसी प्रकार अन्यत्र भी दृष्टव्य है । उक्त स्पष्टीकरणके पश्चात् भी एक शंका बनी रहती है, जिसको ओर वर्द्धमानोपाध्यायने संकेत किया है । वह यह कि उक्त प्रकारसे प्रत्यक्षगम्य उपाधियोंके अभावका निश्चय होने पर भी अतीन्द्रिय ( अयोग्य ) या शंकित उपाधियोंके अभावका निश्चय कैसे होगा? उदयनने इसका भी समाधान प्रस्तुत किया है। वे कहते हैं कि विपक्षबाधक तकसे उक्त प्रकारकी उपाधियोंके अभावका भी निश्चय हो जाता है । इस सन्दर्भमें केशव मिश्रका समाधान भी उल्लेखनीय है । उनका कहना है कि अतीन्द्रिय उपाधियोंकी आशंका नहीं हो सकती, क्योंकि उनके अतीन्द्रिय होनेसे वे उपाधि-आविष्कर्ताको ज्ञात नहीं हैं और अज्ञात स्थितिमें उनके सद्भावकी शंका निर्मल है : तात्पर्य यह कि प्रमाणसिद्ध उपाधिकी आशंका की जानी चाहिए। अन्यथा भोजनादिमें भी विषादिके सद्भावकी शंका रहन पर उनमें लोकिकोंकी प्रवृत्ति नहीं हो सकेगी।" निष्कर्ष यह कि प्रमाणोपपन्न उपाधिके निश्चयसे व्यभिचारका निश्चय और व्यभिचारके निश्चयसे विवक्षित साध्यसाधनमें व्याप्तिके अभावका निर्णय होता है। तथा उपाधिके अभावनिश्चयसे व्यभिचारके अभावनिश्चयका और व्यभिचारके अभावनिश्चयसे व्याप्तिका निश्चय होता है। (घ ) जैन दृष्टिकोण :
माणिक्यनन्दि आदि जैन ताकिकोंने व्याप्तिका स्वरूप देते हुए लिखा है'इसके होने पर ही यह होता है, नहीं होने पर नहीं ही होता' यह व्याप्ति है। इसीको अविनाभाव अथवा अन्यथानुपपत्ति भी कहते हैं। अतएव साधनको अवि
१. ईमानोपाध्याय, न्यायवा० तात्प० परि० न्यायनिबन्धप्रकाशटी० पृ० ६९५ । २. तर्कश्च मर्वशंकानिराकरणपटीयान् विगाजते । विजयते )।
-उदयन, न्यायवा० ता० परि० ११५, पृ० ६९५, तथा किरणा० पृष्ठ ३०१ । ३. अयोग्यम्य शकितुमशक्यत्वात् ।'-केशमिश्र, तकमा० पृ० ७६ । ४. व्यभिचार एवं प्रतिबन्धाभावः । उपाधव व्यभिचारशंका, प्रमाणनिश्चित एवोपाधित्वेन
शंकनीयः -उदयन, न्यायवा० ता० परि० ११५, पृ. ६७६-७७, । ५. यथा चाप्रामाणिकापाघिशंकया मिचारित्वशंकयानुमानादिनिवृत्तिस्तथाऽप्रामाणिका. नर्थशंकयंव विशिष्टाहारमोननादिनिवृत्तिः ।
-वही, पृ० ६७६, तथा पृष्ठ ६७५ । ६. इदमस्मिन् सत्येव भवत्यमति तु न भवत्येव । यथाऽग्नावंव धूमस्तदभाव न भवत्येवांत च । -माणिक्यनन्दि, प० मु० ३।१२, १३ ।