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१२६ : जैन तर्कशासमें अनुमान-विचार
__ यद्यपि स्वार्थानुमान ज्ञानात्मक है, वचनात्मक नहीं, फिर भी उसका स्वरूप बतानेके लिए कि स्वार्थानुमाता इस तरह अनुमान करता है, शब्द द्वारा उसका उल्लेख किया जाता है । जैसे 'यह घड़ा है' इस शब्द द्वारा घटप्रत्यक्षका निर्देश होता है। स्वार्थानुमानके अङ्ग :
धर्मभूषणने इस स्वार्थानुमानके सम्पादक तीन अंगोंका भी विवेचन किया है। वे तीन अंग इस प्रकार है-धर्मी, साध्य और साधन । साधन तो गमकरूपसे अंग है, साध्य गम्यरूपसे और धर्मी दोनोंका आधाररूपसे । वास्तवमें आधारविशेपमें ही अनुमेयकी सिद्धि करना अनुमानका प्रयोजन है । धर्ममात्र ( अग्निसामान्य ) को सिद्धि तो उसी समय हो जाती है जब 'जहां जहां धूम होता है वहां वहां अग्नि होती है इस प्रकारसे तक द्वारा व्याप्ति गृहीत होती है । इन तीनों अंगोंमेंसे एक भी न हो तो स्वार्थानुमान सम्पन्न नहीं हो सकता । अतः तीनों आवश्यक हैं । __ पक्ष और हेतुके भेदसे उन्होने स्वार्थानुमानके दो भी अंग बतलाये है । जब साध्य धर्मको धर्मीसे पृथक नहीं माना जाता तब साध्यधर्म विशिष्ट धर्मीको पक्ष कहा जाता है और उस स्थिति में पक्ष तथा हेतु ये दा ही स्वार्थानुमानके अंग हैं । इन दोनों निरूपणोंम उक्तिवैचित्र्यको छोड़कर और कोई भेद नहीं है, यह स्वयं धर्मभूषणने स्पष्ट किया है । धर्मीकी प्रसिद्धता :
ध्यान रहे कि धर्मी प्रसिद्ध होता है ।" हाँ, उसको प्रसिद्धि कहीं प्रत्यक्षादि प्रमाणसे होती है, जैसे अग्निको सिद्ध करनेम पर्वत प्रत्यक्षप्रमाणसे सिद्ध है । कहीं विकल्प ( प्रतीति )से सिद्ध मान लिया जाता है, जैसे अस्तित्व सिद्ध करने में सर्वज्ञ और नास्तित्व सिद्ध करने में खरविषाण विकल्पसिद्ध धर्मी है । और कहीं प्रमाण तथा विकल्प दोनोंसे धर्मी सिद्ध रहता है, जैसे अनित्यता सिद्ध करनेमें गन्द उभय
१. न्या० दी०, पृ० ७२, ३.२३ । २. वही, पृ० ७२, ३-२४ । ३, ४. अथवा पक्षो हेतुरित्यंगद्वयं स्वार्थानुमानत्य, साध्यधर्मविशिष्टस्य धामणः पक्षत्वात् ।
तथा च स्वार्थानुमानस्य धनिसाध्यसाधनभेदात्त्राण्यंगानि । पक्षसाधनभेदादंगद्वयं चंति सिद्धम्, विवक्षावैचित्र्यात् । पूर्वत्र हि धमिधर्मभेदविवक्षा। उत्तरत्र तु तत्समुदायांववक्षा।
-न्या० दो० पृष्ठ ७२, ७३, ३-२५। ५. स एव धमित्वेनाभिमतः प्रसिद्ध एव । तदुक्तमभियुक्तै:-'प्रसिद्धो धमा' ( परीक्षामु०
३-२७) इति।
-वही, पृ० ७३, ३-२५ । ६. वही, पृ० ७३, ३-२६ ।