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अनुमानभेद-विमर्श : १२५
अनुसरण देवसूरिने भी किया है और उनकी कारिकाके उद्धरणपूर्वक उसका समथन किया है । ये दो ही ऐसे तार्किक है जिन्होंने प्रत्यक्षको परार्थ बतलाया है । जैन या इतर परम्परामें, जहाँ तक हमें ज्ञात हैं, अन्य किसी तर्किने प्रत्यक्षको परार्थ नहीं कहा |
तथ्य यह है कि चाहे प्रत्यक्ष प्रतिपन्न अर्थको कहने वाला वचन हो और चाहे अनुमानप्रतिपन्न अर्थको । दोनों ही प्रकारके वचनों को श्रोत्रेन्द्रिय द्वारा ग्रहण करना तो श्रोत्र- प्रत्यक्ष है । पर उन्हें सुनकर श्रोताको जो उनके द्वारा प्रतिपाद्य अर्थका ज्ञान होगा वह अर्थ से अर्थान्तरका ज्ञान होने अनुमान कहा जाएगा, परार्थ प्रत्यक्ष नहीं । सच तो यह है कि प्रतिपत्ति दो प्रकारको होता है - ( १ ) स्वार्थ और ( २ ) परार्थ | स्वार्थ प्रतिपत्तिका साधन ज्ञान ( प्रत्यक्ष, स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क और स्वार्थानुमान ) है तथा परार्थप्रतिपत्तिका उपाय एकमात्र शब्द है | अतः जिस प्रकार अनुमानगम्य अग्नि आदिको बतानेवाले धूमादि साधनका प्रतिपादक धूमादिवचन है उसी प्रकार प्रत्यक्षगम्य घटादिको कहने वाला घटादि वचन है और यह घटादिवचन धूमादिवचनकी तरह बचनात्मक परार्थानुमान है, परार्थ प्रत्यक्ष नहीं ।
अनुमानके स्वार्थ-पदार्थ भेदोंका मल्लिपेणने भी कथन किया है और उनके लक्षण देवसूरि जंग ही बतलाये हैं ।
पन्द्रहवीं शताब्दी के आरम्भ में होनेवाले विश्रुत तार्किक धर्मभूषणने न केवल उक्त स्वार्थ- परार्थ द्विविध अनुमान-भेदों तथा उनके लक्षणों को ही कहा है, अपितु उनका विशद एवं विशेष वर्णन भी किया है। स्वार्थानुमानका स्पष्टीकरण करते हुए उन्होंने लिखा है
परोपदेशमनपेक्ष्य स्वयमेव निश्चितान्प्राक्तर्कानुभूतव्याप्तम्मरणमहकृताधूमाई साधनादुत्पन्नं पर्वतादौ धर्मिण्यग्न्यादः साध्यस्य ज्ञान स्वार्थानुमानमित्यर्थः । यथा पर्वतोऽयमग्नमान् धूमवत्त्वादिति ।
अर्थात् प्रतिज्ञा और हेतुरूप परोपदेशकी अपेक्षा न करके स्वयं ही निश्चित तथा इससे पूर्व तर्क द्वारा गृहीत व्याप्तिके स्मरणमे सहकृत धूमादि साधनसे उत्पन्न हुए पर्वत आदि धर्मी में अग्नि आदि साध्यके ज्ञानको स्वार्थानुमान कहते हैं । जैसे यह पर्वत अग्निवाला है, क्योंकि वह धूमवाला है ।
प्र० न० त० ३.२६ १७ ।
२. अनुमानं द्विया स्वायं परार्थ च । तत्रान्यथानुपपत्त्येकलक्षणह तुग्रहणमम्बन्धस्मरणकारणकं साध्यांत्रज्ञानं स्वार्थम् । पक्षहेतुवचनात्मकं परार्थमनुमानमुपचारात् ।
-स्था० मं० पृष्ठ ३२२ ।
३. न्या० दी० पृष्ठ ७१, ३-२३ ।