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१२० : जैन तर्कशास्त्रमें अनुमान - विचार
ग्रहण कराता है तथा दूसरे उसके वचनोंको सुनकर व्याप्तिग्रह्ण करके उक्त हेतुओंम उक्त साध्योंका ज्ञान करते है तो दूसरोंका वह अनुमानज्ञान 'परार्थानुमान' कहा जाता है । और वे परार्थानुमाता कहे जाते हैं । अतः अनुमानके उपादानभूत हेतुका प्रयोजक तत्त्व अन्यथानुपपन्नत्व स्व और पर दोके द्वारा गृहीत होने तथा दोनों अन्यथानुपपन्नत्व- गृहीताओंको अनुमान होनेसे प्रदेशभेद, व्यक्तिभेद या प्रयोजनभेदकी अपेक्षा अनुमान के अधिक-से-अधिक दो प्रकार हो सकते हैं( १ ) स्वार्थानुमान और ( २ ) परार्थानुमान । सम्भवतः इन दो भेदोंकी परिकल्पनाके मूलमें प्रशस्तपाद' और दिङ्नागकी भी यही दृष्टि रही हैं ।
यद्यपि प्रशस्तपाद' या दिङ्नाग अथवा न्यानप्रवेशकारने इन अनुमानभेदोंकी परिगणना नहीं की, तथापि उनके द्वारा किया गया इन अनुमानोंका निरूपण स्पष्ट बतलाता है कि उन्हें ये दो भेद अभिप्रेत हैं ।
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जैन परम्पराम सबसे पहले इन दो भेदोंका प्रतिपादन सिद्धसेनने किया जान पड़ता है | उन्होंने यद्यपि 'स्वार्थानुमान' का उल्लेख नहीं किया— केवल परार्थानुमानका निर्देश किया है और उसका उसी प्रकार स्वरूप बतलाया है जिस प्रकार प्रशस्तपादन प्रशस्तपादभाष्य में और प्रमाणवार्तिकालंकारकारने ' प्रमाणवार्तिकालंकारमें एक उद्धृत पद्य द्वारा प्रस्तुत किया है । सिद्धसेनने परार्थानुमानका एक लक्षण और दिया है जो न्यायप्रवेशकार के परार्थानुमानलक्षणपर आधृत है । फिर भी सिद्धसननं 'स्वनिश्चयवत् पदके द्वारा स्वार्थानुमानका ग्रहण किया है । दूसरी
१. प्रश० भा० ५० १०६ ।
२. वहा ५० १०६, ११३ ।
३. न्या० प्र० पृष्ठ २७ ।
४. स्त्रनिश्चयवदन्येषां निश्चयात्पादनं दुधैः ।
पराये माननाख्यातं वाक्यं तदुपचारतः ।
- न्यायाव० क० १० ।
५. प्रश० भा० पृ० १५३ ।
६. स्वनिश्चयवदन्येषां निश्चयोत्पादनेच्छया । पक्षधर्मत्वसम्बन्धसाध्योक्तेरन्यवर्जनम् ॥ - प्र० वातिंकाल० पृष्ठ ४८७ ।
७. साध्याविनानुवा हेतोर्वचो यत्प्रतिपादकम् । परार्थमनुमानं तत् पक्षादिवचनात्मकम् ॥
-न्यायाव० का ० १३ ।
८. साध्याविनामुना लिगात् साध्यनिश्चायकं स्मृतम् । अनुमानं तदभ्रान्तं प्रमाणत्वात् समक्षवत् ॥ — वही, का० ५ ।