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११८ : जैन तर्कशास्त्र में अनुमान - विचार
वादिराजकी दूसरी विशेषता यह है कि उन्होंने वैशेषिक सम्मत चतुर्विध या पंचविध अनुमान की भी समीक्षा की है। इस समीक्षा में उन्होंने बतलाया है कि अनेक हेतु ऐसे हैं जो न संयोगी है, न एकार्थसमवायो, न समवायी और न विरोधी । फिर भी वे गमक अनुमानजनक ) हैं । उदाहरण के लिए निम्न दो हेतु प्रस्तुत किये जा सकते हैं
( १ ) एक महत्त के अन्त में शकट नामक नक्षत्रका उदय होगा, क्योंकि अभी कृत्तिकाका उदय हो रहा है ।
(२) एक महत्तं पहले भरणिका उदय हो चुका है, क्योंकि अब कृत्तिकाका उदय हो रहा है ।
इनमें पहला पूर्वचर है और दूसरा उत्तरचर । ये दोनों हेतु उक्त चारोंमें से किसी में भी अन्तर्भूत नहीं हो सकते - न संयोगीमें, न समवायीमें, न एकार्थममवायी और न विरोधी में । ये केवल अन्यथानुपपत्तिके आधारसे ही अपने माध्योंके नियमतः साधक ( अनुमापक ) हैं । इन्हें अहेतु या हेत्वाभास भी नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि वे साध्य के अभाव में नहीं होते । अतः वैशेषिकों का भी अनुमानचातुविध्यनियम नहीं ठहरता। उन्हें उक्त चारके अतिरिक्त इन और इन जैसे अन्य हेतुओं को भी मानना पड़ेगा ।
(घ) प्रभाचन्द्रप्रतिपादित अनुमानभेद-आलोचना :
प्रभाचन्द्रने भी प्रमेयकमलमार्त्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र में उक्त अनुमानभेदोंकी मीमांसा प्रस्तुत की है। विशेष यह कि इन्होंने वैशेषिकोंके पांच और सांख्योंके सप्तविध अनुमानोंका भी उल्लेख करके उनकी आलोचना की है तथा कृत्तिकोदयादिहेतुओंका उनमें अन्तर्भाव न हो सकनेसे उन्हें अव्यापक बतलाया है। साथ ही अविनाभाव के बलपर ही हेतुको अनुमानांग होनेका प्रतिपादन किया है । उनकी यह विचारणा बहुत सरल और तर्कपूर्ण है ।
१. यथा संयोग्यादिभेदकल्पनमपि तत्रापि प्रागुक्त हेतूनामनन्तर्भावात् । न हि कृत्तिकादयः शकटादयस्य संयोगी, कालव्यवधानेन परस्परमप्राप्तः । यदपि संयोगिन उदाहरणं तद्वयवधानादेव नासां तस्य सनत्रायी संयोगिसमवायिनारिव एकायसमत्रायन्याप तस्यानन्तर्भावान्''।
-न्या० वि० वि० २।१७३ पृष्ठ २०८-२१० ।
२. प्र० क० मा० ३१५ पृष्ठ ३६२ ।
३. न्या० कुमु० ३।१४, पृ० ४६० ४६१ ।
४. न्या० कुमु० पृ० ४६२ ।
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