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अनुमानभेद-विमर्श : ११७
हरण के लिए हम वीजसन्तान और अंकुर सन्तानको ले सकते हैं । प्रकट है कि बीजसन्तान अंकुर सन्तानके और अंकुरसंतान वीजसन्तानके अभाव में नहीं होता, तब उनमें परस्पर गम्यगमकभाव क्यों नहीं होगा ? अतः हम अनुमान कर सकते हैं। कि 'यहां यवबीज सन्तान है, क्योंकि यवांकुरसन्तान देखा जाता है। इसी प्रकार यह भी अनुमान किया जा सकता है कि 'यहां यत्रांकुरसन्तान है, क्योंकि यवबीज उपलब्ध होता है।' इस तरह कार्यकारणरूप चौथा अनुमान भी सिद्ध होता है । कोई वजह नहीं कि कारणानुमान, कार्यानुमान और अकार्यकारणानुमान ये तीन अनुमान तो माने जाएं, पर कारणकार्योभयानुमान न माना जाए |
(ग) वादिराज द्वारा अभिहित अनुमानभेद - समीक्षण :
यहां वादिराजकी भी दो विशेषताएं दृष्टव्य है । उनका कहना है कि अनुमान तीन या चार भेदोम ही सीमित नहीं है । अनेक हेतु ऐगे है जोन पूर्ववत् हैं, न दोषवत् और न सामान्यतादृष्ट | उदाहरणार्थ 'विषम तुला के छोरोंमें पाये जाने वाले नाम और उन्नाम परस्पर अविनाभन है, क्योंकि वे एक दूसरे के अभाव में उपपन्न नहीं होते' अथवा 'इस समान तुलामे उन्नाम ( ऊंचाई ) नहीं है, क्योंकि नाम ( नीचाई ) अनुपलब्ध है । ये दोनों गहन र अनुगान सम्यक् अनुमान हैं । पर ये न पूर्ववत् में आते हैं, न शेपवन में और न सामान्यतोदृष्टम | अतः वैविध्य का नियम नहीं बनना । इसके सिवाए तीन प्रकारका अनुमान काळयकी अपेक्षा नौ प्रकारका और अभ्युत्पन्न, मन्दिग्ध एवं विषयंस्त प्रतिपाद्योकी अपेक्षा गत्ताईस प्रकारका भी सम्भव है। यदि उन भेदांकी अपेक्षा न कर केवल व्यापारभेदने तीन अनुमान कहे जाएं तो उन व्यापारतयका भी अपेक्षा न कर एक केवल अन्यथानुपपत्तिका ही अपेक्षा एक ही प्रकारका अनुमान मानना उचित है। अन्यथानुपपनिका क्षेत्र इतना व्यापक और विशाल है कि उसमें वे पूर्ववत् आदि तीन आर वीनादि नीन अनुमान तो समा हो जाते है। किन्तु उनके अलावा उक्त प्रकार के महचर आदि अनुमान भी उसके अन्तर्गत आ जाते है ।
नापि तथा त्रविध्यनियमः, उन्नागादीनामपूर्वत्वेन तत्रानन्तभावात । पृवतामंत्र स्वयमन्त्रय्यादीनां व्याख्यानात् ।
न्या०वि०वि० २२७३ पृ २०८ ।
विविवस्य मनः कालभेदापेक्षा नववियवस्य नवविवस्यापि पुनरन्युत्पन्नमन्दिग्धविपर्य स्वरूप नपायापेक्षया स्प्रविशतिविस्यापि सम्मान तन्निबन्धनमेवमनपेक्ष्य व्यापारमान भेदन श्रविध्यमुच्यत इति चेन, नगप्यनपेक्ष्य अन्ययानपपत्ति निवन्नमेकविधमेव हि वक्तव्यम् । विस्तरेण शिष्यत्युत्पादनाय नवविधत्वसमविशतिविवत्वाभ्यामपि सम्भवात्। तन्न तादि मेदक कल्लनमप्युपपन्नम् ।
वही, २०१७३, पृष्ठ २०८ ।