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अनुमान-समीक्षा : ९. कम्" और उद्योतकरको लिंगपरामर्शोऽनुमानम्'२ परिभाषाओंमें हमें केवल कारणका निर्देश मिलता है, अनुमानके स्वरूपका नहीं। उद्योतकरकी एक अन्य परिभाषा 'लैगिकी प्रतिपत्तिरनुमानम् में स्वरूपका ही उल्लेख है, कारणका उसमें कोई सूचन नहीं है। दिड्नागको 'लिंगादर्थदर्शनम्'४ अनुमानपरिभाषामें यद्यपि कारण और स्वरूप दोनोंको अभिव्यक्ति है, परन्तु उसमें लिंगको कारणके रूपमें सूचित किया है, लिगके ज्ञानको नहीं। किन्तु तथ्य यह है कि अज्ञायमान घूमादि लिंग अग्नि आदिके जनक नहीं है । अन्यथा जो पुरुष सोया हुआ है, अगृहीतव्याप्तिक है उसे भी पर्वतमें धूमके सद्भावमात्रसे अनुमान हो जाना चाहिए। किन्तु ऐसा नहीं है। पर्वतमें अग्निका अनुमान उसी पुरुषको होता है जिसने पहले महानस आदिमें धूम-अग्निको एक साथ अनेकबार देखा और उनका अविनाभाव ग्रहण किया, फिर पर्वतके समीप पहुँच कर धूमको देखा, अग्नि और धूमकी व्याप्ति (अविनाभाव)का स्मरण किया और फिर पर्वतमें उनका अविनाभाव जाना तब उस पुरुषको 'पर्वतमें अग्नि है' ऐसा अनुमान होता है। केवल लिंगके सद्भावमात्रसे नहीं । अतः दिड्नागके उक्त अनुमानलक्षणमें 'लिंगात्'के स्थानमें 'लिंगनर्शनात्' पद होने पर ही वह पुर्ण अनुमानलक्षण हो सकता है।
अकलंकदेवका 'लिंगात्साध्याविनाभावामिनिबांधे कलक्षणात् । लिंगिधीरनुमानं तत्फलं हानादिबुद्धयः ॥' यह अनुमान लक्षण उक्त दोषोंसे मुक्त है । इसमें अनुमानके साक्षात् कारणका भी प्रतिपादन है और उसका स्वरूप भी निर्दिष्ट है । सबसे बड़ी बात यह है कि इसमें उन्होंने 'तत्फलं हानादिबुद्धयः' शब्दों द्वारा अनुमानके फलका भी निर्देश किया है। सम्भवतः इन्हीं सब बातोंसे उत्तरवर्ती सभी जैन ताकिकोंने अकलंकको इस प्रतिष्ठित और पूर्ण अनुमान-परिभाषाको हो
१. प्रश० भा० पृष्ठ ९६ । २. न्यायवा० ११५, पृ० ४५ । ३. वही, १११॥३, पृष्ठ २८ । ४. न्या० प्र० पृष्ठ ७। ५. अज्ञायमानस्य तस्य ( लिगस्य ) साध्यशानजनकत्वे हि सुप्तादीनामगृहीतधूमादीनामप्य
गन्यादिज्ञानोत्पत्तिप्रसंगः।
-न्या० दी०, पृष्ठ ६७। ६. अगृहीतव्याप्तेरिव गृहीतविस्मृतव्याप्तेरपि पुसोऽनुमानानुदयेन व्याप्तिस्मृतेरप्यनु
मितिहेतुत्वात् । धूमदर्शनाच्चोबुद्धसंस्कारो व्याप्तिं स्मरति । यो यो धूमवान् स सोऽग्निमान् यथा महानस इति । तेन धूमदर्शने जाते ब्याप्तिस्मृतौ भूतायां यधूमशानं तत् तृतीयं "घूमवांश्चायम्" इति । तदेवाग्निमनुमापयति नान्यत् ।
-तर्कभा० पृ० ७८, ७९ । ७. लषीय० का० १२ ।
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