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अनुमान-समीक्षा : ९३
यहां प्रश्न है कि इस अनुमान-परिभाषासे ऐसा प्रतीत होता है कि जैन परम्परामें साधनको ही अनुमानमें कारण माना गया है. साधनके ज्ञानको नहीं ? इसका समाधान यह है कि उक्त 'साधन' पदसे 'निश्चयपथप्राप्त साधन' अर्थ विवक्षित है. क्योंकि जिस धूमादि साधनका साध्याविनाभावित्वरूपसे निश्चग नहीं है वह साधन नहीं कहलाता। अन्यथा अज्ञायमान धूमादि लिंगसे सुप्त तथा अगृहीत धूमादि लिंग वालोंको भी वह्नि आदिका ज्ञान हो जाएगा। अतः 'साधन' पदसे 'अविनाभाविरूपसे निर्णीत साधन' अर्थ अभिप्रेत है, केवल साधन नहीं । विवरणकारने भी उसका यही विवरण किया है । यथा
साधनं साध्याविनाभावनियमनिर्णयैकलक्षणं वक्ष्यमाणं लिंगम् ।
साधन वह है जिसके साध्याविनाभावरूप नियमका निश्चय है । इसीको लिंग ( लोनमप्रत्यक्षमर्थं गमयति )-छिपे हुए अप्रत्यक्ष अर्थका अवगम कराने वाला भी कहते हैं।
अकलंकदेव स्वयं उक्त अर्थको प्रकाशिका एक दूसरी अनुमान-परिभाषा लघीयस्त्रयमें निम्न प्रकार करते हैं
लिंगात्साध्याविनामावाभिनिबोधैकलक्षणात् ।
लिंगिधीरनमानं तत्फलं हानादिबुद्धयः ॥४ साध्यके बिना न होनेका जिसमें निश्चय हैं, ऐसे लिंगसे जो लिंगी ( साध्यअर्थ )का ज्ञान होता है उसे अनुमान कहते हैं। हान, उपादान और उपेक्षाका ज्ञान होना उसका फल है । ___ इस अनुमानलक्षणसे स्पष्ट है कि साध्यका गमक वही साधन अथवा लिंग हो सकता है जिसके अविनाभावका निश्चय है। यदि उसमें अविनाभावका निश्चय
१. ननु भवतां मते साधनमेवानुमाने हेतुर्न तु साधनशानं साधनात्साध्यविशानमनुमा
नमिति ।
-धर्मभूषण, न्या० द्वी० पृ० ६७ । २. 'न, 'सायनात्' इत्यत्र निश्चयपथप्राप्ताद्धमादेरिति विवक्षणात् । अनिश्चयपथप्राप्तस्य
धूमादेः साधनत्वस्यवाघटनात् । "साधनाज्शायमानाद्धमादः साध्येऽग्न्यादी लिंगिनि यद्विज्ञानं तदनुमानम् । अशायमानस्य तस्य साध्यशानजनकत्वे हि सुप्तादीनामगृहातधूमादीनामप्यग्न्यादिशानात्पत्तिप्रसंगः ।
-वही, पृ०६७। ३. वादिराज, न्या० वि० वि० द्वि० भा० २।१, पृ० १। ४. लघीय० का० १२ ।