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जन स्वाध्यायमाला र ३६३
जो जो पूदगल की दिशा, ते निज माने हंस । याही भरम विभावते, बढे करम को वस ।७। रतन बंध्यो गठडी विषे, सूर्य छिप्यो घन माहि । सिंह पिंजरा मे दियो, जोर चले कछु नाहि ।। ज्यु बंदर मदिरा पियाँ, विच्छू डकित गात । भूत लग्यो कौतुक करे, त्यू कर्मी को उत्पात ।। कर्म संग जीव मूढ है, पावे नाना रूप । कर्मरूप मल के टले, चेतन सिद्ध स्वरूप ।१०। शुद्ध चेतन उज्ज्वल दरब, रह्यो कर्म मल छाय । तप सयम सु धोवता, ज्ञान ज्योति बढ जाय ।११॥ ज्ञान थकी जाने सकल दर्शन श्रद्धा रूप । चरित्र से आवत रुके, तपस्या क्षपन स्वरूप ।१२। कर्म रूप मल के शुधे, चेतन चादी रूप । निर्मल ज्योति प्रगट भया, केवल ज्ञान अनूप ।१३। मसी पावक सोहगी, फूंका तणो उपाय । रामचरण चारो मिल्या, मैल कनक को जाय ।१४। कर्मरूप बादल मिटे, प्रगटे चेतन चंद । ज्ञानरूप गुण चाँदनी, निर्मल ज्योति अमंद ।१५॥ राग द्वेप दो बीज से, कर्म बध की व्याध । ज्ञानातम वैराग्य से, पावे मुक्ति समाध ॥१६॥ अवसर बोत्यो जात है, अपने बस कछु होत । पुण्य छता पुण्य होत है, दीपक दीपक ज्योत ।१७। कल्पवृक्ष चितामणि, इण भव मे सुखकार ।