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वृहदालोयणा
ज्ञान वद्धि इन से अधिक, भवदु.ख भंजनहार 1१८॥ राइ मात्र घट वध नही. देख्या केवलज्ञान । यह निश्चय कर जानके, तजिये प्रथम ध्यान ।१६। दूजा भी नहि चितिये, कर्म वध बहु दोष । जीजा चौथा ध्याय के, करिये मन सतोप २० गई वस्तु सोचे नहीं, आगम वाछा नांहि। - वर्तमान वर्ते सदा, सो ज्ञानी जग माही ।२१॥ अहो समदृष्टि जीवड़ा, करे कुटुब प्रतिपाल । अतर्गत न्यारो रहे, ज्यु धाय खिलावे वाल !२२। सुख दुख दोनु बसत है, ज्ञानी के घट माहि । गिरि सर दीसे मुकर मे, भार भीजवो नाहि ।२३। जो जो पुद्गल फरसना, निश्चे फरसे सोय । ममता समता भाव से, करम बंध क्षय होय ।२४। बाध्या सोही भोगवे, कर्म शुभाशुभ भाव । फल निर्जरा होत है, यह समाधि चित्त चाव ।२५॥ वाध्या विन भुगते नहीं, विन भुगत्या न छुडाय । आप ही करता भोगता, पाप ही दूर कराय ।२६। पथ कुपथ घट वध करी, रोग हानि वृद्धि थाय । यं पुण्य पाप किरिया करी, सुख दुख जग मे पाय ।२७। सुख दिया सुख होत है, दु ख दिया दुख होय । आप हणे नही अवर को, तो पापको हणे न कोय ॥२८॥ ज्ञान गरीवी गुरु वचन, नरम वचन निर्दोप। इन को कभी न छोड़िये, श्रद्धा शील सतोष ।२९।