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" जैन सुबोध गुटका ।
१०७ ऋषि परिचय.
( तर्ज-गजल. विना रघुनाथ के देखे )
करे जो कब्ज इस दिलको, रहे इस जहां से निरयाला । श्री जिन थान धारे वो, ऋषिश्वर हो तो ऐसा हो ॥ १ ॥ आत्म जित श्रासन मार, इन्द्रीय मर्दन मृग छाता | मुद्रा सुनि धर्म धारी वो, ऋषिः ॥ २ ॥ क्षमा की खाक तन पहिने, रहम रुद्राक्ष की माला । तप अनी कर्म इन्धन । ऋषि० ॥ ३ ॥ भगवन् नाम की भंग पी रहे नित मस्त मतवाला । लगावे ध्यान ईश्वर से | ऋपि० ॥ ४ ॥ लंगोटी शील की मारी, अनद हो नाद रस घाला । काया कोटी में रहता वो ॥ ऋषि० ॥ ५ ॥ काम मद क्रोध लोभ तांई, दिया टाला दिया टाला। भोग भुजंग सा जाने | ऋषि० ॥६॥ चौथमल कहे गुरु हीरालाल, थे गुणवंत दुनियां में, उन्हीं को नम्र हो वन्दे ॥ ऋषि० ॥ ७ ॥
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१०८ प्रभु प्रेमादर्श.
( तर्ज- या हसीना वस मदिना, करवला में तू न जा ) इश्क उससे लगगया; दुनियां से मतलब कुछ नहीं । अपना विगाना छोड़ दे, दुनियां से मतलब कुछ नहीं || टेर ॥ उसकी मोहब्बत का पियाला, भरके एकदम पी लिया । मस्त
वह रहता सदा, दुनियां से मतलब कुछ नहीं । इश्क० ॥ १ ॥ लज्जत ज्यादे इश्ककी, कहने में कुछ श्राती नहीं । उसका मजा जाने वही, दुनियां से मतलब कुछ नहीं ॥ २ ॥ चाग या स्मशान हो, चाहे महल या वीरान हो । वदनाम या तारीफ हो, दुनियां से मतलब कुछ नहीं ॥ ३ ॥ बना रहे माशूक वो, दिनरात