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जैन सुबोध गुटका।
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राई की चूड़ी सुन्दर, प्रभु वाणी विंदली जोय ॥२॥ विद्या को तो बाजूबंद सोहे, प्रभु लोह लोग लगाय । दांतन में चूप सोहे एसी, धर्म में चूप सवाय ॥ ३॥ नव पदार्थ पालिखो नेवर का झणकार । चौथमल कहे सच्ची सजनी, ऐसा सजे सिणगार ॥४॥
८६ दुनिया फना.
(तर्ज-विना रघु नथ के देखे) लगाता दिल तू किसपर यहां, जहां में कौन तेरा है। सभी मतलव के गरजी हैं, किसे कहता यह मेरा है : टेर। कहलाते वादशाह जहां में, हजारों रहते थे तावे | चले वो हाथ खाली करन उनके साथ पहरा है। लगाता०॥ १॥ छपे रहते थे महलों में, हो गलतान ऐशों में। दिखाते मुंह न सूरज को, उन्हें भी काल ने हेरा है ॥ २॥ मिलकर कुमत वदखुवाने, पिलादी शराव तुझे मोहकी। खबर ना उसमें पड़ती है, यहां चंद रोज डरा है ॥ ३॥ कहां तक यहां लोभानोगे, कि
आखिर जाना तुमको वहां । उठाकर चश्म तो देखा । हुआ शिरपर सवेरा है ॥ ४॥ गुरु हीगलालजी के प्रसाद, चौथमल कहे अरे दिल तू । दयाकी नाव पर चढ़ना, वहां दरियाव गहरा है॥५॥
८७ मान निषेध. (तर्ज-या हसीना वस मदीना, करवला तू न जा) सदा यहां रहना नहीं तू, मान करना छोड़दे । शहनशाह' भी न रहे, तू मान करना छोड़दे ॥ टेर ॥ जैले खिले हैं फूल गुलशन में अज़ीजों देखलो। आखिर तो वह कुम्हलायगा, तू मान करना छोड़दे ॥ सदा० ॥ १ ॥ नूरसे वे पूर थे, लाखों • उठाते हुक्म को । सो खाक में ये मिल गये, तू मान करना .