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जैन सुबोध गुटका।
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७७ कौशल्या का पुत्र वधू को बनवास से रोकना
- (तर्ज विना रघुनाथ को देखें) .
सिया को सासुजी लेकर, बिठाई गोदी के अन्दर । कठिन वनवास का रस्ता, कहां जाती वधू सुन्दर ।। टेर। पुरुष का पांव बंधन हो, जो परदेश संग नारी । सासु श्वसुर की करे . खिदमत, पति सेवा से ये बहतर ।। सिया० ॥१॥ बदन नाजुक है तेरा, बैठ पीजस में फिरती है। वहां पैदल का चलना है, सूल का फेर है खतर ॥२॥ कठिन सहना क्षुधा तृषा, रहना फ़िर वृक्ष की छाया। परिसहा ठंड गरमी का, मानले कहन रहजा घर ॥ ३॥ हरगिज यहां न रहूंगी, रहूं जहां नाथ वो रहये । पतिव्रत धर्म यही सहे, दुख सुख संग में रहकर ॥ ४ ॥ चौथमल कहे सच्ची नारी, पतिव्रता पियु प्यारी । लेवे शोभा जहां अन्दर, पति सेवा में यूं रह कर ॥ ५ ॥
७- प्रोत्साहन, . (तर्ज-या हसीना वस मदीना, करवला में तू न जा) - अय जवानों चेतो जल्दी; करके कुछ दिखलाइयो । उठो अब बांधो कमर तुम करके कुछ दिखलाइयो । टेर । किस नींद में सोते पड़े; क्या दिल में रखा सोच के । वेकार वक्त मत गुमाओ; करके कुछ दिखलाइयो । अय० ॥१॥ यश का डंका बजा; इस भूमि को रोशन करो । एश में भूलो मती: तुम करके कुछ दिखलाइयो ॥२॥ हिम्मत बिना दौलत नहीं; दौलत बिना ताकत कहां । फिर मर्द की हुरमत कहां, करके कुछ दिखलाइयो ॥३॥