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जैन सुवोध गुटका।
६७ चेतन ! होशियारी से रहना.
(तर्ज--मांड) हो म्हारी मानो क्यों नहीं कहन २ वटाउमा खरची ले ले लार ॥ टेर ॥ तू मुमाफिर खाने में सोतो, झलती मांझल रात । श्रास पास तेरे हेरु फिरत हैं, और न कोई सात ॥ हो० ॥१॥ तीन रतन तेरे बंधे गठरीमें, जिनका करियो जतन । गफलत में रहियो मतीरे, नरभव मिले कठिन ॥२॥ पर भूमि पर भूप कीरे, तेरो यहां पर कौन । वृथा माया में फँसीथे तो,भुगतो चौरासी जौन ॥३॥ इस मुमाफिर खाने माही, लख आवत लख जात । सुकरत खर्ची पल्ले बांधो, तू मत जा खाली हाथ ॥ ४ ॥ भोर भये उठ जावनोरे, चार पहर की बात । चौथमल कहे सुयश लीजो, ये जग में रहजात ॥ ५ ॥ ६८ सांसारिक कृत्यों से चेतनको बचना.
(तर्ज-पालकी) थारो नरभव निष्फल जाय जगत के खेलमें ।। टेर ॥ सन्दर के संग सेज में सोवे, रात दिवस तू महल में । इत्तर लगावे पेच मुकावे, जावे शामको सैलमें ।। थारो० ॥ १ ॥ कंठी डोरा डाल गले में, बैठे मोटर रेल में । मोत पकड़ लेजावे तोकू, हवालगे ज्यू पेल में ॥ २॥ कमूमल पाग केशरिया बागा, . पटा चमेली तेल में । काम अंध घूमे गलियों में, होय छबीलो छेल में ॥३॥ धर्म करेगा तो