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जैन सुवोध गुटका।
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कोई न आन छुड़ावे जी । फकत तूही अकेली हैरी ॥७॥ शील धर्म क्षमा ले धारी; कहे सब अच्छी ये नारीजी । न बोले एरी गरी कहे चौथमल हितकारी ले देव गुरु शुद्ध धारीजो। धरो ध्यान प्रभुका सबेरी ॥६॥
६६ स्त्री की धूर्तता से बचो
(त-लावणी रंगत छोटी) मत पड़ त्रिया के फंद मानले कहना है नया रंगसी प्रीत चित्त क्या दना टे॥ये सूरत की तो दिखती भोली भाली। उसने में बैंगी पक्की नागिन काली। हँस २ रिझावे लगा हात की ताली। फँसे इसके जाल में पढ़े लिखे कईजाली । नहीं इसके विषकी दवा होवे कर चैना ॥ है०॥२॥ नहीं करना कोई विश्वास ऐसी कपटन का । कर देगी सत्यानाश तेरे तन धन का। ये बुरी लुटेरी लूटे रस जोबन का। किया इसका संग वो अधिकारी नरकनका लेती चलते को चींध तीर यों नैना ॥२॥ ये मात पिता भगनी से प्रीति छुड़ावे । इक क्षणभर में नाराज खुशी हो जावे । कभी बोले मधुरे न कभी घुरकाये। इसकी माया का पार कहो कुण पाये । बड़े २ वीर को चलावे अपनी एना ॥३॥ इसके कारण दशकंठ ने दुःख उठाया। पुन पदमनाभ ने अपना राज गमाया । भीमजीने कीचक को मार गिराया। फिर इसके भोग से त्रपत नहिं हो काया। कहे चौथमल सत शील रत्न को लेना ॥४॥