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जैन सुबोध गुटका |
चौथमल कहे सीता हितकार, लगाओ मत रघुवर अब चार । भैया लछमन को ले लार; बेगा आवजो ३ ॥ ४ ॥
६१ मनुष्यत्व की उत्कर्षता. ( तर्ज - माडू )
जिवराज थे तो थाछो प्राक्रम फोड़ो म्हाकाराज || ढेर || काया वाड़ी गुलावकीरे, सींचता कुम्हलाय । चेतना होवे तो चेतजोरे, जोवन ढलियो जाय ॥ १ ॥ नर देह खेती मांयन, पंछी बैठा पांच । गुण रुप्यो दानो चुगेरे, लंबी जिसके चांच || २ || रस्तागीर देख्यो मानवीरे ऊजड़ होतो खेत । कोई गफलद में हो मतीरे; उपकारी हेला देत || ३ || थोड़ो सो उद्यम करोरे, माल जावते होय | परमादी जोको रहेरे, गयो जमारो खोय ||४|| खेती तो निपजी थकीरे, कुंडरिक दीधी खोय । गति उद्यम कर पुंडरिक मुनीरे सिद्ध पामी सोय || ५ || उगणीसो चोसठमेरे, पोप आगरे मां । गुरु हीरालाल जी के प्रसादे, चौथमल यों गया ॥ ६ ॥ ६२ उद्यम ही सिद्धि का हेतु. (तर्ज- आसावरी )
पुरुषारथ से सिद्धि पावे ॥ ढेर || पुरुपारथ ही बंधु
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जगत में, दुष्कर कार्य करावे । पुरुषारथ करके महा मुनिवर खप्पक श्रेणी चढ़ जावे । उद्यम हीन दीन नर वांकी कुण माखी उड़ावे ॥ २ ॥ सत्य शील आचार तपस्या । पुरुपारथ पार लगावे । अरिहंत सिद्ध लव्ध पात्र पद । सो सब