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जन सुबोध गुटका। (२७) निर्धन धनी से रखता है अकड़ाई । दाता को देख मूंजी ने हंसी उड़ाई। पतिव्रता को देख लंपट ने आंख मिलाई । गुणी के गुण को द्वेपी की माने है ॥ २ ॥ बंध्या क्या जाने कैसे पुत्र जावे है। संतन के भेद को वही संत पावे है। हीरे की जांच तो जौहरी को आवे है। या घायल की मति घायल बतलावे है । सत शिक्षा को मूरख उलटी ताने हैं ॥ ३ ॥ मुक्ता तजके गुंजा शठ उठावे । इक्षु को वजके ऊंट कटारो खावे । पा अमूल्य नरतन विषयों में ललचावे । गज से विरोध हो जैसे श्वान धुर्रावे । कथे चौथमल समझे वही दाने है ॥४॥
३६ चेतन प्रतिबोध.
(तर्ज-शेर खानी दादरा) चेतन दुनियां में, देखो धरा क्या है ॥ टेर ॥ कोठी बनी है बागमें, पानी का होज है । लीलम के कंठे पहनते, मोटर की मौज है। बजे नकारे जोर से, संग लाखों फोज है । कहां गए वह राजा उनका भी खोज है । खाली मोह बीच फंसना पड़ा क्या है॥१॥ माता पिता और भ्राता स्वजन परिवार है। सोले श्रङ्गार सजती अछरासी नार है । फूलों की सेज उपरे करती प्यार है । पकड़ के काल लेगया करती प्रकार है। स्वार्थका रोना और अड़ा क्या है ॥ २॥ वाटी के बदले खेत दे कैसा गंवार है। कव्वा उड़ाने खातिर दिया रत्न डार है । नपुसंक को