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जैन सुबोध गुटका।
३७. रहनेम को प्रतिबोध. . तर्ज -कांटोलागोरेदेवरिया मोसूं संग चल्यो नहीं जाय.
तो को बार बार समझाऊं हो मुनिवर मन अपनो समझाले ॥टेर ॥ सुं तो रहगई दर्शन प्यासी, आप बने जा गिरिवर वासी । तू रिष्टनेम भगवान पे, देवरिया निगाह लगाले ॥१॥ मुझे अकेली श्राप निहाली, विषयभोग की जवां निकाली। नहीं वंछु तुझे लगार, वार तू चाहें जितना पटकाले ॥२॥ धिक्कार पड़ो अब तुझ ताई, गज तज खर पे सुरत लगाई । इससे मरना परधान जान, प्रतिज्ञा पूरि निभाले ॥ ३॥ जातिवंत सर्प कहलावे, वमें जहर वह भी नहीं चहावे । पड़े आग में जाय ध्यान में लाय वाज तू आले ॥४॥ सती वेन रहनेम सुणी ने गए मोक्षम शुद्ध बनीने । कहे चौथमल चित्त लाय, आगम के माय सदा गुण गाले ॥५॥
३८ योग्यता का परिचय
(तर्ज-लावणी खड़ी) पापी तो पुण्य का मारग क्या जाने है, खर कमल. पुष्प की गंध न पहचाने है ।। टेंर ॥ नकटाने नाक दूजा को दाय नहीं आवे । विधवा ने सांग स्वागन को नहीं सुहावे । हो उदय चंद्रमा चोरों को नहीं भावे । लुब्धक को लागे अमिष्ट जो जाचक आये । सुनके सिद्धान्त मिथ्यात्वी रोस आने है ॥१॥ अगायक गायक की करे बुराई।