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जैन सुवोध गुटका ।
। ३०७) वीर जिनेश्वरन ॥ ४ ॥ साल अठयासी बम्बई बीच,निर्विघ्न चौमासा पूर्ण किया । कहे चौथमल उपकार किया, भारत में वीर जिनश्वर ने ॥ ५॥
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नम्मर ४१८ गौतमजी कर अभिमान, आडम्बर से आया है। संग में अपने कई पढ़े लिखे, छात्रों को लाया है । टेक ॥ समवसरन के बीच में, आकर के जब खड़े। देखी आनन्द जिनराज का; अति विस्मय पाया है ॥१॥ ऐसी न कला है कोई, इनको मैं जीत लूं । पड़ गए द्विधा में इन्द्रभूति, मन में पछताया है ॥ २॥ पीछा भी फिरना हैं, नहीं, अच्छा मेरे लिए करना क्या अब यों मन ही मन, संकल्प ठाया है॥३॥ बोले हैं वीर उस समय, सब ही के सामने । आओ गौतम यों आपने, श्रीमुख फरमाया है ॥ ४ ॥ जाने न कौन सूर्य को, जाहिर मेरा है नाम । इससे नहीं पूर्ण ज्ञानी, जब संशय मिटाया है ॥ ५॥ लिनी है दीक्षा आपने, संसार त्याग के । नियों में हुए शिरोमणी, गणधर पद पाया है ॥ ६॥ प्रातः ही रटो सदा, गणधर के नाम को। कहे चौथमल पाओगे ऋद्ध, नासिक में गाया है ॥७॥