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जैन सुबोध गुटका।
(३) कोई कहे नीति की, अभिमान में बोले में ग्राम बीच जरदार, मुझे कौन तोले। मेरे चन्द्रमुखी है नार जैसे सुलतानी ॥१॥ तूं किसको कहता महल ये मंदिर हाथी । और ये गुलाम दिन रात के सेवक साथी । सब छोड़ चले जैसे तेल जले पे बाती। ये झूठी दुनियां साथ कोई नहीं पाती । तेने किया पुण्य अरु पाप भोगे तूं प्राणी ॥२॥ तेरा बालपना तो खेल कूद में जाता । जवानी बीच में फिरे होय मद माता। नहीं सत्संग में लेजा भर तूं आता । हीरे को तज के पत्थर पर ललचाता । तुझे पार २ समझावे सद्गुरु ज्ञानी ॥३॥ यूं अनंतकाल गयो, अब न इसे बितावो । प्रमाद छोड़ केजिनवर के गुण गावो। धमें श्राराम में सदा जीव रमावो। करे सुमति सखियां अर्ज ध्यान में लायो । मुनि चौथमल उपदेश देवे नित तानी ॥ ४ ॥ . . . ४ मनशुद्धि प्रयत्न.
(तर्ज.-या हसीना बल मदीना कर्बला में तू न जा)
लो तन को धोए क्या हुने, इस दिल को धोना चाहिये । बाकी कुछ भी ना रहे, बिलकुल ही धोना चाहिये । ॥टेर ॥ शिल्ला बनावो शील की, और ज्ञान का साबुन सही । प्रेम पानी बीचमें, सब दाग खोना चाहिये ॥१॥ व्यभिचार हिंसा झूठ चोरी, काम क्रोध मद लोभ का। मैल बिलकुल ना रहे, तुम्हें पाक होना चाहिये ॥२॥ दिल खेत को करके सफा, पाप कंकर को हटा । प्रभु नाम का इस