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जैन सुबोध गुटका ।
पूरो दास की आश ॥ महा० ॥ ३॥ कल्पवृक्ष हो कामधेनु, चिन्तामणि रत्न समान । जहां जावें हो विजय धर्म की, ऐसा दो वरदान || महा० ||४|| असी साल चेत सुदी एकम, किजे प्रभुजी निहाल | गुरु प्रसादे चौथमल कहे, सेलाना गुणमाल || महा० ॥ ५ ॥
२ दया का फल.
तर्ज- या हसीना बस मदीना, कर्बला में तूं न जा ॥ दया की बोवे लता, शुभ फल वही नर पायगा । सर्वज्ञ का मंतव्य है, गर ध्यान में जो लायगा ॥ टेर ॥ श्रायु दीर्घ होता सही, अरु श्रेष्ठ तन पाता वही । शुद्ध गौत्र कुल के बीच में, फिर जन्म भी मिल जायगा ॥ १ ॥ घर खूब ही धन धान्य हो, अति वदन में बलवान हो । पदवी मिले है हर जगह, स्वामी बड़ा कहलायगा || २ || आरोग्य तन रहता सदा, त्रिलोक में यश विसतरे । संसार रूप समुद्र को, आराम से तिर जायगा || ३ || गुरु के परसाद से, यूं चौथमल कहता तुम्हें । दया रस भीने पुरुष के, इन्द्र भी गुण गायगा ॥ ४ ॥
३ मिथ्या ममत्व.
तर्ज-लावणी
कर धर्म ध्यान ले सीख गुरुकी मानी । क्यों सटर : पटर में, खोवे सारी जिन्दगानी || टेर || तु धंधा बीच "में, : अधा होके डोले । पैसे के नशे में श्रांखें भी नहीं खोले ।
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