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________________ ( २६४ ) जैन सुबोध गुटका | राखी || ढेर || मन की तो मन में रही सरे, कहाँ कणीने बात | विश्वासघात म्हां कर गया सो कांई आप तणा अंग जात || १ || खाना पीना पहरना सो, म्हाने सूना लागे महेल | प्रीतम ऐसी कर गया स जूं, बादीगर को खेल || २ || कागद होतो वांचला स कांई, कर्म न व च्या जाय । कोई कांई लियो अणी कर्म में सरे, ज्ञानी बिना कुरण फरमाय || ३ || बहुवां कहे श्रत्र करें करा स म्हाने, हुकम देवो फामाय | चौथमल कहे धर्म आराधो, जन्म सफल होजाय ॥ ४ ॥ ३६५ गौतम स्नेह. [ तर्ज- कांटो लागोरे देवरिया ] मारा वीर प्रभु का दर्शन की, म्हारे मन में रेगईरे २ मारे दिल में रहगईरे || ढेर || देव समय को प्रति बोधवा, आज्ञा दीनीरे | पिछे से गए आप मोक्ष, या कैसी किनीरे ॥ १ ॥ रात दिवस में सेवा करतो, थी मुझपे अति महेर । तदपि स्वाभी आप मुझे कहो, क्यों नी लेगए लेर ॥ २ ॥ गोयम गोयम कौन कहेगा, कौन लड़ावे लाड़ | किसको जाय कहूंगा स्वामी, बड़ा पड़ गया पहाड़ ||३|| श्रभुत छटा आपकी समरी, उठे हृदय में लहेर । कहाँ गई वह मोहन सूरत, लाऊं कहां से हेर ॥ . > ४ ॥ जो जो संशय
SR No.010311
Book TitleJain Subodh Gutka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1934
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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