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मन मुबोध सुटका । (२१७) ।। टर | राज तख्त और भरा खजाना,सभी धरा हजाग। घर को नारी प्रान से प्यारी, यह भी साथ नहीं . साय
क० ॥१॥दर्पन में मुख निरस २ क, इल सो मन मांय ।हान मांस मल मूत्र को थलो, पाखि विनशी जाय । एक धर्म ॥२॥ माईबंध और कुटुम्ब के खातिर, क्यों तूं कर्म कमाय । शमसान भूमि तक छाहे, परव मित्र के न्याय ॥ एक०॥३॥ हीर पन्न के कंटे पहन के. मोटर माय । श्रांग पीछे मरना तुमका, मोहन भोगांचर काय ।। एक० ॥४॥ राजा राना छरपति के, कोई साथ नहीं याय । सच्चा मित्र धर्म है जीया, परभव में सुखदाय ।। एक० ॥५॥ रजन शहर में साल गुएयासी । किया चौमालो धाय । चौधमल उपदेश सुनावे, लुगा मएड़ी के माय ।। एक.. ॥६॥
• ३०६ कलियुग की करतूत, - (तर्ज-समं पा सय को मुनाय जायंगे )
कैसा भाया या कलियुग भागेरे ॥ टेर॥ वार्षिक को जोर, घर में घमकावें । वादि धम महनारी
कैसा ॥१॥ लड़की के धन मे, पेली भगवे जह उरावे, जाति सारीरे सा२॥ लगने लगी में चोल है हंस हंस, सेना की भक्ति विसारी सा ॥ ॥३॥ दया दान से दूर भी है। इट मनीति लगे पारी