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________________ (१६० ) जैन सुवोध गुटका । चमक इन से नहीं अड़ना ॥ ३॥ चार ओरड़ी मिलकर रस्सो गूंथे । करे बहुत जोर नर वो तोड़ा कहां टूटे । जुदीर दोरड़ी तोड़े न मुशफिल वरना ।॥ ४॥ एक से एक मिले दश गुणों बल थावे । तीन चीज मिले सोरो देखा हो जाये फिर पर्वत नाखे तेड न्याय उर धाना ॥५॥ जिसके घर में सम्प उसे न डर कोई । इस फूट वश रावण ने लंका खोई । ऐसी जान आपस में अदावदी परिहरना ॥६॥ इसी सबब से हिन्दुस्थान के माहीं । औरो ने आकर अमला दिया जमाई । स्वभला के ख्वाहिश जरा ध्यान तो धरना ॥७॥ गुरु हीरालाल परसाद चौथमन कहवे । कोई अकलबंद गायन के भेद को लेवे । यों शहर जावरे उन्नीसे चौसठ में वरना ।। ८॥ २४१ मिथ्या ममत्व त्याज्य. (तर्ज-कन्याली) '. सुनरे तूं चेतन पारे, किस लुभा रहा है। दुनियां तो जैसे सपना तूं क्यों बहका रहा है ।। टेर ॥ कहां खास बतन है तेरा, कहां पै लगाया डेरा । किसको कहे तूं मेरा क्या तुझको दिखा रहा है ।।.सु० ॥१॥ तू तो अखंड अविनाशी, अनंत गुण को राशी । पुद्गल तो है विनाशी, नाहक भ्रंमा रहा है ॥ २॥ कषि घट कर फसाना, घटाकास
SR No.010311
Book TitleJain Subodh Gutka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1934
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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