________________
जैन सुबोध गुटका |
( १३७ )
.
यह धर्म, तुरत वैराग्य नृप पांव ॥ १२ ॥ छोड़ दी राज रिष सारी, जैन शासन के मंझारी । हुआ संजती व्रतधारी, केवल पा मोच में जावे ॥ १३ ॥ गुरु महाराज हीरालाल, सदा सुख संपदा पाजो | चौथमल को किया पावन, नित्य गुण थापके गावें ॥ १४ ॥
२१० आधुनिक शिक्षा अपूर्ण. ( तर्ज- आखिर नार पराई है )
जो वर्तमान पढ़ाई है, जिमें रुची धरम की नाई है. || ढेर || मिले नहीं धर्म का योग । लगे फिर मिथ्यात्व का रोग | नहीं समझे लिहाज के मांई हैं | जो ० ॥ १ ॥ कोट पतलून गेटिस को धारे। मुख में सिगरेट कुत्ता लारे | दिया ऐनक नेन चढ़ाई हैं || २ || गुड मोर्निंग कर मुख से बोले । राम राम हृदय से भूले । मिलते हाथ मिलाई है || ३ || घर में तो रोटी नहीं भावे, नित होटल में जाके खावे । चा-पानी की चाट लगाई है || ४ || सोड़ा वाटर सब मिल पीवे । जाति का कोई भेद न रहये । घूमे घड़ी लगाई है | ५ || खड़ा २ पेशाब करे हैं। पीवे गांडी जो चुद्धि हरे हैं | लगा कालर नकटाई हैं || ६ | श्रार्य चिन्ह चोटी कटवाई | ललांट पे लिये बाल रखाई | गये पहन अकढाई || ७ || कई नास्तिक होके डोले । साधु संत से मुख नहीं बोले | दया हृदय विसराई है || विद्या