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('(३६ )
जैन सुवोध गुटका
संजती
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अगले जमाने की | कहूं मैं ध्यान धर नादरः । देश पंचाल के अंदर, कंपिल पुरं कहलावें ॥ सौचत० ॥ १ ॥ राजा है वहांका, साथ-चतुरंग दल - लेके । सजे शसतर केशरी वन, करन आखेट को जावे ॥ २ ॥ भंस लोभी हो याहू पर लगाया तीर को सांधी, भगा मृग बीच झाड़ीके, पीछा ले राजा संगे जावे ॥ ३ ॥ उसी जंगल की झाड़ीमें, ग्रध माली महा मुनिराज । तपोधन ज्ञानके पूरे, 'ध्यान जिनराज का ध्यावे ॥ ४ ॥ राजा तत्काल ही आया, घायल मृग वहां पढ़ा पाया। फेर वहां देख मुनिवर को, नृप दिल बीच घबरावे ॥ ५ ॥ अश्व को छोड़ मुनि तट श्रा करे बंदन झुका सरको । खता को माफ कर दीजें, मुनि तो मौन में रहावे ।। ६ ।। खोफ खाके कहे मुनि से, संजती नाम राजा हूं, कृपा दृष्टी से तो बोलो, मेरा ज्यों जीव सुख. पावे ॥ ७ ॥ ध्यान को खोलकर बोलें, अभै देता तुझें नर पत। श्रभै तू भी दे जीवों को, जुल्म क्यों ध्यान पर लावे. ॥ ८ ॥ डरा तूं देख के मुझको, ऐसे ही डरते तुझसे जीव । घड़ा जुल्मों से तू भरता, दया दिलमें न तू लांवे ॥ ६ ॥ किसके राज हैं भंडार, झूठे साज सब श्रृंगार । रूप चौवन विज्जु झलकार, जीव के साथ क्या आवे ॥ १० ॥ हजारों नाम पर होगये, नहीं किसका निशां वाकी । मुसाफिर चार दिन के हो, पड़ा सब ठाठ रद्द जावे ॥ ११ ॥ खता कर्ता वोही भर्ता, यही आगम की वाणी है।
सुना मुनिराज से
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