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(१०६) जैन सुवोध गुटका। mmmmmmmmmmmmmmmmmmmm
१६४ रात्रि भोजननिषेध. (तर्ज-विना रघुनाथ के देखे नहीं दिलको करारी है)। तजो तुम रात का खाना । इसी में पाप भारी हैं । कहे सपुरुष यों तुमसे, मानो शिक्षा हमारी है। टेर ॥ अगर जो रातको खाते, उनके खाने के अंदर । पड़े परदार केई जीव, जिन्हों की जात न्यारी है ॥ तजो० ॥१॥ है अंधा रात का खाना, धर्मी को नहीं है लाजिम । पक्षी भी रात के अंदर, चुगादेते निवारी है ॥२॥ जलोदर जूं से होवे है, मक्खी से वमन होता है । कोढ़ मकड़ी से होता है, यही दुनियाँ में जारी है॥३॥ विच्छ गर कोई खावे तो, सिर में दर्द उसके हो। होय नुकसान रात्री में, अरे कुछ भी विचारी है ॥ ४ ॥ छोड़दे रात का खाना तू वारहमास के अंदर । हो छ मास की तपस्या, बड़ी पारामकारी है ॥५॥ सस्वत् उन्नीसे उन्तर, किया रतलाम चौमासा । गुरु हीरालाल के परसाद, चौथमल कह पुकारी है ॥ ६॥ .
१६५ अवस्था दृश्य.
(तर्ज-आखिर नार पराई है) जब गया बुढ़ापा छाई है, लव निकल गई अकड़ाई है ॥ टेर । यौवन का उतरा है पूर । दांत गिर गया मुख.का नूर । कोमल काया कुम्हलाई है । सब० ॥१॥ मुख से देखो लार पड़े है। नैन नासिका दोनों झरे है। बालों पे सफेदी आई है ॥२॥ डग मग डग मग चलता चाल । बैठ गये दोनों ही गाल | कानों से सुनता नाहीं है॥ ३॥ वेटों ने लिया सव धन बांट । दमड़ी नहीं रहने दी गांठ । फिर दिया उसे छिटकाई है ॥ ४ ॥ नवयुवक मिल हंसी उड़ावें । नहीं चले जोर