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जैन सुबोध गुटका |
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रों ग्राफत सहकर, जन्म वृथा गमानोगे || टेर || चाहे तन खाक ही पहनो, चाहे भगवां करो वसतर । चाहे रक्खो जटा लंबी, कान क्यों न फड़ावोगे || श्या० | १ || चाहे बदरी चनारस जा, चाहे जगन्नाथ रामेश्वर । चाहे गंगा करो स्नान, द्वारका छाप लगाओगे ॥ २ ॥ चाहे मृदंग बजायो ताल, बांध घूंघर को नाचो । इससे मालिक न होवे खुश, कहो कैसे रिझाओगे ॥ ३ ॥ चाहे रोजा पुकारो वांग, चाहे निवाज कलमा पढ़ | अगर खतना करे क्यों नहीं, हाथ तसवी फिराओगे ॥ ४ ॥ चाहे सीस मूंड नंगा रद्द, चाहे फकीर क्यों नहीं हो । श्रधेशीस भी लटके, कष्ट खाली उठाओगे ॥ ५ ॥ चाहे पूजा करो संध्या, तपो धूनी तो होना क्या । रखो रद्दम दिल कर साफ, दमल में फिर न आओगे ॥ ६ ॥ गुरु हीरालाल गुणवंता, चौथमल शिष्य है उनका । कृपाकर संजम तो दीना, मोक्ष किस दिन पहुँचाओगे ॥ ७ ॥
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१६३ संसार अस्थिर, (तर्ज- आखिर नार पराई है )
आखिर जाना छिटकाई है, क्यों बैठा ललचाई है ।। टेर । तू तो परदेशी है छेलो । यह तो हटवाड़ा को मेलो । क्यों सुध बुधको विसराई है । क्यों ॥ १ ॥ मृत्यु हवा बढ़ी यलघाम । उड़जाता ज्यूं पीपल का पान | चले नहीं ठकुराई है। ॥ २ ॥ नदी पूर ज्यूं ऊमर जावे । काम भोग में क्यों हालचावे | दिन दो की अकड़ाई है ॥ ३ ॥ छत्रपती हो राजा राना, नहीं थमर लिक्खा परवाना । एक ही रीत चलाई है ॥ ४ ॥ दया दान को ले' ले लाभ । उभय लोक में रहवे भाव । या चौथमल सुनाई है ॥ ५२ ॥