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जैन सुवोप गुटका।
(१०७)
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चुदा चिल्लावे । साठी बुद्धि न्हाटी ठहराई है ॥ ५॥ बेटे पोते भी घुर्रावें । क्यों बूढ़ा दुकान पे श्रावे । मक्खी भिनक मचाई है॥६॥ खाट पड़ा मारे है टलका । कुछ हिसाय रहा नहीं घश का । अब दरवाजा परवत नाई है।॥ ७॥ यौवन के अव इश्क सतावे । मनका मन मांझी पछताये। मित्रों ने निगाह चुराई है॥८॥ युद्धे बैल को कौन खिलावे । सूखा समुद्र हंस उहजावे । स्वार्थ की सभी सगाई है ॥ ६ ॥ जोरु यचन साफ सुनावे । राम श्रापाने मौत न आवे । घर के गये घबराई है ॥१०॥रासरति नहीं गडपस होय । पहिले अंग कहीं जिन सोय । कर धर्म न आगे माई है ॥ ११ ॥ बाल जमाना गया है भूल । नखरा वाजी न रही विलकुल । तृष्णा ने तरूणता श्राई है ॥ १२ ॥ उगणीसे साल सतत्तर आवे । पूज्य प्रसादे चौथमल गावे । कार्तिक में जोड़ बनाई है ।।१३।।
१६६ काल से सावधान रहो. (तर्ज-विना रघुनाथ के देखे नहीं दिल को करारी है) तुझे जीना अगर दिन चार, मलप्पन क्यों नहीं करता। खड़ी है मौत ये सर पे, भरे ! तू क्यों नहीं डरता ॥ टेर।। अरे! जाती है जिन्दगानी । जैसे वरसाद का पानी । खवर तुझको नहीं प्रानी, पशुवत् रेन में चरता ॥ तुझे० ॥१॥ मस्त है ऐश श्रसरत में, चना चातुर तू कसरत में । पहन पोशाक सज गहना, सेल करने को तू फिरता ॥२॥ हाथ लफड़ी घड़ी लटका, टेड़ा साफा झुका सर पे। घूमता तू गवरी से, नजर असमान में धरता ॥३॥ तर्फ कर जहां को जाना, वहां है मुल्क वीगाना । नहीं कोई यार साथी है, जो कर्ता है वही भरता॥४॥साल उन्नीले पैसट में, किया चौमास उदैपुर ।
तुझको नत में, चना
फिर