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जैन सुवोष गुटका।
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१४५ संसार असार. (तर्ज-या हसीना यस मदीना, करवला में तू न जा, श्रय दिला दुनियां फनां, इसमें लुभाना छोड़दे । स्वाव या हो बाव-सा झांसे में अाना छोड़दे ।। टेर ॥ चार दिन की चांदनी क्यों, जुल्म पर वांधी कमर । हुक्म रव का मानले, दिल का दुखाना छोड़दे ॥ श्रय० ॥१॥ अदा कर अपना फर्ज तू , जिस लिये पैदा हुआ । कर इबादत जिन से, रुह का सताना छोड़दे ॥ २॥ अच्छे बुरे प्रहमाल का, वदला दशर में है सही। है नशा हराम तू , पीना पिलाना छोड़दे ॥३॥ जो गुन्हा हो माफ तो, दोजख कहो किसके लिये ? माफ फा हरवार तू , लेना वहाना छोड़दे ॥४॥ श्रये प्यारों ! अए अजीजों ! दोस्तों मेरी सुनो । सफर का सामान फर,जी यहां फलाना छोड़दे ॥ ५ ॥ कहां सिकन्दर कहां अकवर,फहां अली अजगर गये। तू भी अव मिजमान है, गफलत में सोना छोड़दे ॥ ६॥ गुरु के प्रसाद से, यूं चौथमल फहता तुझे। मानले नसीहत मेरी, रंडी के जाना छोड़दे ॥ ७ ॥
१४६ धर्मादर्श.
(तर्जधन) इस जगत के बीच में, एक धर्म का आधार है । उठा के देखो निगाह, झूठा सभी संसार है। माता पिता भ्राता सुता, मतलव के पूरे यार हैं । मिजमान तू दिन चार का, किसले करे अब प्यार है । पुरुष जो पाप कमाता है । खता वो श्राप खाता है । चौथमल साफ जिताता है। वक्त अनमोल जाता