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जैन सुबोध गुटका।
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तो भवी अभवी, कई जीव ने पायार नहीं श्रद्धा २ तो कुगुरु. मिल भरमायारे ॥३॥ श्रयके श्रद्धा गाढ़ी राखो, शुद्ध पराक्रम को फोहोरे । अल्प दिनों के मांही पाठौं, कर्म को तोड़ारे ॥४॥ यह दश बोल की क्षीर मसाला, दार पुण्य से पाईरे । अंनत काल की भूख प्यास, थारी देगा भगाईरे ॥ ५॥ निर्धन को धनवान हुए.ज्यू धान्ध आंखां पाईरे । चन्द्रकान्त माती के मानिंद, नर देह साईरे ॥ ६॥ गुरु प्रसादे चौथमल कहे, कीजे धर्म कमाईरे । उन्नीसे और सतर साल में जोड़ वनाईरे ॥७॥
१४२ क्रोध के कटु फल. (तर्ज -दोन काय पट भणे, सुनो जगर्दाश पुकार ) कय तक हम समझायें, क्रोध को तजो जनाव ॥टेर ॥ क्रोध बराबर दुख नहीं है, जैसे अग्नि की ताप । क्रोध वगवर जहर नहीं है, क्रोध बराबर पाप । तपस्या करे खराव ॥ क्रोध० ॥ १ ॥ क्रोध बड़ा चांडाल है, प्रीति जाय सव टूट । जिसके घर में क्रोध घुसा है, कैसी मचाई फूट । उतर गया कई का प्राव ॥२॥ पत्थर टूटे तालाव की, मिट्टी यूं फट जाय । बालू नीर की लकीर ज्यूं.क्रोध चार कहलाय । गति चारों का हिसाव ॥३॥ क्रोध करी मर जावे नर्क में, मार गुर्ज की खाये । चौथमन्न कहे वह क्रोधी, फिर शेर रीछ हो जावे, हुश्रा नर भव का खुवाय ॥४॥
१४३ जैसा कर्म वैसा फल. (तर्ज-विना रघुनाथ के देख नहीं दिल को करारी है ) करो नेकी चदी जहां में, तो उस का फल पावेगा । यदी