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६- तत्वार्थ
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२- रत्नत्रयाधिकार
१०३. सम्यक् चारित्र १२ वे गुणस्थान में पूर्ण होता है ? भावात्मक चारित्रपूर्ण हो जाने पर भी योग शेष रहने से चारित्र अपूर्ण माना जाता है।
१०४. अविरत सम्यग्दृष्टि को केवल सम्यग्दर्शन है चारित्र नहीं ? ऐसा नहीं है। वह सर्वथा अविरत नहीं होता, उसे भी सम्यक्वाचरण या चारित्र अवश्य होता है और जैसा कि पहले बताया गया है वह स्वरूपाचरण का अंश ही है । अपनी लौकिक प्रवृति के प्रति निन्दन गर्हण तथा व्रतादि धारण की उत्तरोत्तर दृढ़ भावना उसे निरन्तर बनी रहती है। यही उसका चारित्र है, क्योंकि यदि ये न हों तो वह आगे सच्चा त्याग वैराग्य कर नहीं सकता।