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३-कर्म सिद्धान्त
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१- बन्धाधिकार (१७३) पुद्गल विपाको प्रकृति कितनी व कौन सी हैं ?
बासठ हैं - (सर्व १४८ प्रकृतियों में से क्षेत्र विपाकी ४, भवविपाकी ४ और जीव विपाकी ७८ ऐसे कुल ८६ प्रकृति घटाने
पर ६२ शेष रहती हैं। वे सब पुद्गल विपाकी हैं।) (१७४) पाप प्रकृति कितनी व कौन सी हैं ?
सौ हैं-घातिया ४७, असाता वेदनीय, नीच गोल, नरकायु
और नाम कर्म की ५० (नरक गति, नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यंचगत्यानुपूर्वी, एकेन्द्रियादि चार जाति, अन्तिम ५. संहनन, अन्तिम ५ संस्थान, स्पर्श रसादिक २०, उपघात १, अप्रशस्त विहायोगति १, स्थावर १, सूक्ष्म १, अपर्याप्ति १, अनादेय १, अयशः
कीति १, अशुभ १, दुर्भग १, दुःस्वर १, अस्थिर १, साधारण १) । १७५. तिर्यच गति को तो पाप में गिना पर आयु को न गिना?
तिर्यंच आयु पूण्य में गिनाई है। इसका कारण यह है कि एक नरक आय ही होती है जिसका कि जीव त्याग करना चाहता है। शेष तीन आयुओं का जीव त्याग करना नहीं चाहता, विष्ठा का कीड़ा भी स्वयं मरना नहीं चाहता। गति के दृष्ट दुखों को देखने पर तिर्यच गति साक्षात दुःख रूप होने से पाप
में गिनी जानी योग्य ही है। (१७६) पुण्य प्रकृति कितनी व कौन सी हैं ?
अड़सठ हैं (सर्व १४८ प्रकृतियों में से पाप को १०० निकल कर शेष रही ४८ में नामकर्मकी स्पर्श रसादि २० मिला देने पर ६८ का योग प्राप्त होता है; क्योंकि स्पर्श रसादि की ये २० प्रकृति पुण्य जीव में पुण्य रूप से और पाप जीव में पाप रूप से फल देने के कारण उभय फल प्रदायी हैं।)
(३. स्थिति बन्ध) (१७७) स्थिति बन्ध किसको कहते हैं ?
कर्मों में आत्मा के साथ (बन्धकर) रहने की मर्यादा पड़ने को (अर्थात् उनकी आयु को) स्थिति बन्ध कहते हैं ।