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३-कर्म सिद्धान्त
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१-पधाधिकार का काल अपने से पूर्व पूर्व की अपेक्षा कुछ अधिक है । जघन्य से उत्कृष्ट पर्यन्त अन्तर्मुहूर्त के अनेक भेद हैं । सो यहां तत्त
द्योग्य अन्तर्मुहुर्त समझना। १२६. छहों पर्याप्तियों का प्रारम्भ व अन्त किस कम से होता है ?
आहार पयाप्ति को आदि लेकर पूर्वोक्त क्रम से ही इन की पूर्णता तो आगे पीछे होती है, पर इन सब का प्रारम्भ एक
दम भवधारण के प्रथम क्षण में ही हो जाता है। १२७. किस किस जीव को कितनी पर्याप्ति होती है ?
एकेन्द्रिय जीव के भाषा व मन के बिना चार, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय ओर असैनी पंचेन्द्रिय के मन बिना पांच और सैनी
पंचेन्द्रिय के छहों पर्याप्तिमें होती हैं। १२८. पर्याप्त जीव कौन से हैं ?
शरीर पर्याप्ति पूर्ण होने के पश्चात जीव पर्याप्त संज्ञा को प्राप्त होता है, क्योंकि इसके पूर्ण होने पर अगली पांचों
पर्याप्तियें से क्रम पूर्वक नियम से पूरी हो जाती हैं। (१२६) अपर्याप्ति नाम कर्म किसको कहते हैं ?
जिस कर्म के उदय से लब्ध्य पर्याप्त अवस्था हो उसको
अपर्याप्ति नाम को कहते हैं। १३०. अपर्याप्त जीव कौन से व कितने प्रकार के होते हैं ?
अपर्याप्त जीव दो प्रकार के होते हैं-निवृत्ति अपर्याप्त और लब्धि अपर्याप्त । शरीर पर्याप्ति पूर्ण हो जाने के पश्चात् जिस जीव को अवश्य पर्याप्त संज्ञा प्राप्त करनी है वह जब तक उसे (शरीर पर्याप्ति) को पूरी नहीं कर लेता तब तक निवृत्ति अपर्याप्त कहलाता है। पर जिस जीव को शरीर पर्याप्ति प्रारम्भ हो जाने पर भी उसे पूरी करने की शक्ति न हो, और उस पर्याप्ति के अधूरी रहते में ही मृत्यु को प्राप्त हो जाये, वह लब्ध्यपर्याप्तक कहलाता है। श्वास के अठहारवें भाग प्रमाण ही उनकी आयु होती है।