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३- कर्म सिद्धान्त
१- बन्धाधिकार
६२. स्वरूपाचरण चारित्र को घात ने से क्या तात्पर्य ? मिथ्यात्व के सहवती होने से यह कषाय जीव को अन्तरंग की ओर लक्ष्य करने नहीं देती । इसी के उदय से वह बाह्य पदार्थों इष्टानिष्ट भाव को धारण करता हुए उनके पीछे व्यग्र बना रहता है।
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(६३) मिथ्यात्व व अनन्तानुबन्धी में क्या अन्तर है ?
मिथ्यात्व सम्यक्त्वगुण का घातक होने से अभिप्राय व श्रद्धा को विपरीत करता है और अनन्तानुबन्धी चारित्र का घातक होने से अन्तर प्रवृत्ति को विपरीत करता है ।
(६४) अप्रत्याख्यानावरण क्रोध मान माया लोभ किसे कहते हैं ? जो आत्मा के देश चारित्र को घाते उनको अप्रत्याख्यानावरण क्रोध मान माया लोभ कहते हैं ।
(६५) प्रत्याख्यानावरण क्रोध मान माया लोभ किसे कहते हैं ? जो आत्मा के सकल चारित्र को घाते, उनको प्रत्याख्याना - वरण क्रोध मान माया लोभ कहते हैं ।
(६६) संज्वलन क्रोध मान माया लोभ किसे कहते हैं
जो आत्मा के यथाख्यात चारित्र को घाते उनको संज्वलन कषाय क्रोध मान माया लोभ) और नोकषाय कहते हैं । ६७. देश चारित्र आदि को घातना क्या ?
इस इस प्रकृति के उदय में जीव की वैराग्य व त्याग शक्ति वृद्धिंगत नहीं हो पाती । भोगों से विरक्त होना तथा साम्यता में स्थित होना चाहते हुए भी उस उस प्रकार के चारित्र को स्पर्श नहीं कर पाता । यही उस उस का घात है ?
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६८. सम्यक्त्व होते हुए भी चारित्र धारणा क्यों नहीं करता ? सम्यक्त्व का काम अन्तरंग में हेयोपादेय विवेक उत्पन्न कराना मात्र है । तदनन्तर हेय का त्याग वैराग्य की वृद्धि के आधीन है और वह चारित्र के अन्तर्गत है ।