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२-द्रव्य गुण पर्याय
४-जीव गुणाधिकार 'मैं उस पदार्थ को जानू', अब 'इसे छोड़कर इसे जानू' ऐसा प्रयत्न विशेष विकल्प कहलाता है। ऐसे विकल्प सहित जानने
को सविकल्प ग्रहण कहते हैं। २१. बाह्य चित्प्रकाश से क्या समझे?
अन्तरंग वेतना का झुकाव ज्ञयों के प्रति रहना अर्थात उसका ज्ञाता ज्ञान ज्ञेय रूप त्रिपुटी युक्त हो जाना ही बाह्यचित्प्रकाश है; क्योंकि एक तो इस प्रकार के उपयोग में बाह्य पदार्थों का ही प्रतिभास होता है और दूसरे अन्तर्चेतना का प्रयत्न व
झकाव बाहर की ओर होता है। २२. तो क्या ज्ञानोपयोग स्वात्म ग्रहण को समर्थ नहीं?
उसका आकृति सापेक्ष द्रव्यात्मक रूप ही उसका विषय है और सामान्य अन्तर्चेन प्रकाश के लिये वह भी स्वात्म नहीं
परात्म ही है। २३. ज्ञान के चारों लक्षणों का समन्वय करो।
विशेष ग्रहण स्वयं विकल्पात्मक है। विकल्पों में ज्ञेय पदार्थों के प्रति लक्ष्य रहने से वह साकार है । प्रतिबिम्ब रूप से बाह्य पदार्थ ही ज्ञान में प्रतिभाषित होते हैं स्वयं आत्मा नहीं; जैसे कि दर्पण में बाह्य पदार्थ ही प्रतिबिम्बित होते हैं स्व पण नहीं । इसलिये उन आकारों या प्रतिबिम्बों का ग्रहण बाह्य चित्प्रकाश कहलाता है । अथवा रागी जनों के जानने का ढंग बाह्य ज्ञेयों के प्रति लक्ष्य करके प्रयत्न पूर्वक होता है, इसीसे
वह बाह्य चित्प्रकाश कहलाता है। २४. ज्ञान व अनुभव में क्या अन्तर है ?
'मैं इस पदार्थ को जानता है ऐसा बाह्य की ओर का विकल्प ज्ञान कहलाता है । और उस पदार्थ के निमित्त से जो सुख दुख की अन्तर्प्रतीति होती है वही उस पदार्थ का अनुभव कहलाता है । जैसे आंख से अग्नि का ज्ञान होता है और हाथ द्वारा उसे छूने पर हाथ जलने के दुःख की प्रतीति उसका अनुभव है।