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९८] जनसिद्धांतसंग्रह। पांचा इंद्री शिथल भई तब, स्वास शुद्ध नहिं आवै । . वापर भी ममता नहिं छोड़े, समता र नहिं लावै ॥ १७॥ मृत्युरान उपकारी नियको, तनसे तोहि छुड़ावे । नावर या तन बंदीग्रहमें, पड़ापड़ा विकलावे ॥ पुदगलके परमाणू मिलके, पिंडरूप तन भासी। ' यही मूरती मैं अमूरती, ज्ञाननाति गुपखासी ॥१८॥ रोग शोक आदिक जो वेदन, वे सब पुदल लारे । मैं तो चेतन व्याधि विना नित, हैं सो भाव हमारे ॥ या तनसे इस क्षेत्र संबंधी कारण आन बनो है। . खान पान दे याको पोषो, अब समभाव ठनो है ।।.१९ । मिथ्यादर्शन आत्मज्ञान विन, यह तन अपनो नानो। इंद्री भोग गिने मुख मैंने, आपो नाहिं पिछानो ॥ तन विनशनते नाश जानि निन, यह अयान दुखदाई। कुटुम आदिको अपनो जानो, मूल अनादी छाई ॥ २०॥ अब निज भेद यथारथ समझो, मैं हूं ज्योतिस्वरूपी।. उपज बिनश सो यह पुद्गल, नानो याको रूपी । इष्टनिष्ट नेते सुखदुख हैं, सो सब पुदल सांगे। . मैं जब अपनो रूप विचारो, तब वे सब दुख भागे ॥ २१॥ बिन समता तन नन्त घरे मैं, तिनमें ये दुख पायो। शस्त्रघातनन्त बार मर, नाना योनि भ्रमायो । चार नन्त ही अग्निमाहि जर, मूवो सुमति न लायो। सिंह न्यान अहि नन्तवार मुझ, नाना दुःख दिखायो र विन समाधि ये दुःख लहे में, अब उर समता.आई.। .