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जैनसिद्धांतसंग्रह ! ॥१९॥ पृथ्वी जल. अरु अग्नि वायु चउ काय वनस्पति । पंचहि थावरमाहिं तथा त्रस जीव बसें नित । वे, इंद्रिय तियं चउ पंचेद्रियमाहिं जीव सब । तिनतै क्षमा कराऊं मुझपर क्षमा करो. अब ॥ १२॥ इस अवसरमैं मेरे सब सम कंचन अरु त्रण । महल मसानं समान शन्नु अरु- मित्रहि सम गणं ॥ नामन मरण समान जानि हम समता कीनी । सामायिकका काल जिते यह भाव नवीनी ॥ १३॥ मेरो है इक तामैं ममता जु कीनौ ।। और सबै मम भिन्न जानि समतारस भीनौ ।। मातापिता सुत बंधु मित्र तिय मादि सबै यह । मोते न्यारे जानि जथारथरूप कहो गह ॥१४॥ मैं अनादि, नगजालमाहिं फंस रूप न जाण्यो एकेंद्रिय. दे आदि जंतुको प्राण हराण्यो। ते अब जीवसमूह सुनो मेरी यहः अरनी ! भवभवको अपराध क्षमा कीज्यो कर मरज़ो। १५ ॥
अथ चतुर्थ स्तवनकर्म। नमू. ऋषभ- जिनदेव अनित जिन जीत कर्मको । संभव भवदुखहरण करण अमिनन्द शर्मकों ।। सुमति सुमतिदातार तार भवसिंधु पारकरः। पद्मप्रभु पद्माम भानि भवभीति प्रीतिधर ॥१६ श्रीसुपार्श्व. कृतपाश नाश भव जास शुद्ध कर । श्रीचंद्रप्रम चंद्रकांतिसम देहकांति घर ॥ पुष्पदत दमि दोषकोश भविपोष. रोषहर । शीतल .शीतल करन हरन भवताप दोषहर ॥ १७ ॥ श्रेयरूप जिन श्रेय घेय नित सेय भव्यजन । वासपूज्य शतपूज्य वासवादिक भवभय हन । विमल विमलमतिदैन अंतगत हैं अनंत. निन । धर्म शर्म शिवकरन शांति जिन शांतिविधायिन ॥ १८ ॥