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________________ जैनासद्धांतसंग्रह ! . क्षिमा क्षिमा किय ॥ मेरे ने अव.दोष मये ते क्षमो दयानिधि । यह पड़िकोणो कियो आदि पट्कर्ममांहि विधि. ॥५॥ अथ द्वितीय प्रत्याख्लानकर्म।.. नो प्रमादवश होय विराधे जीव घनेरे। तिनको जो अपराध भयो मेरै अघ ढेरे। सो सब झूठो होहु जगतपतिके परसादै। जा प्रसादत मिले सर्व सुख दुःख न लाधै HE || मैं पापी निर्लज्ज दयाकरि हीन महाशठ । किये पाप अति घोर पापमति होय चित्त दुठ॥ निहूँ हूँ मैं वारवार निन जियको गरहू । सवविध धर्म उपाय पाय फिर पापहि करहूं ॥ ७ ॥ दुर्लम है नरजन्म. तथा श्रावककुल भारी। सतसंगति संयोग धर्म जिन श्रद्धाधारी ।। जिनवचनामृतधार समावत जिनवानी। तौह जीव सहारे पिक धिक् धिक् हम जानी ॥ ८॥ इंद्रियलंपट होय खोय निन ज्ञानजमा सब । अज्ञानी जिम कर तिसी विधि हिंसक है अब ।। गमनागमन करतो जीव विराधे मोले। ते सब दोष किये निर्दू अब मनवच तोले ॥९॥ आलोचनविषयकी दोष लाग जु घनेरे। ' ते सब दोष विनाश होउ तुम जिन मेरे ।। बार बार इस भांति मोह मद दोष कुटिलता ईर्षादिकत भये निदिये जे भयमीता ॥१॥ :... · · अथ तृतीय सामायिक कर्म। . .. - सब जीवनमें मेरे समताभाव जग्यो है । सब नियं मो सम. समता राखो भाव लग्यो है . आर्त रौद्र द्वय ध्यान छाँहि . करिहै सामायिक । संयम मो का शुद्ध होय-यह भाव वधायक
SR No.010309
Book TitleJain Siddhanta Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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