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जैनसिद्धांतसंग्रह बने जहांतक इस जीवनमें, औरोंका उपकारका ४ ॥
मैत्रीभाव जगतमें मेरा सब जीवोंसे नित्य रहे. 'दीन दुखी जीवोंपर मेरे, उरसे करुणास्रोत ॥
दुर्जन क्रूर कुमार्गरतों पर, क्षोभ नहीं मुझको आवे । साम्यभाव रक्खू मैं उन पर, ऐसी परिणति हो जावे ॥५॥ गुणीजनोंको देख हृदय, मेरे ममें उमड़ावे । चने जहांतक उनकी सेवा, करके यह मन मुख पावे ।। होऊं नहीं कृतघ्न कमी मैं; द्रोह न मेरे उर आवे । ... गुण ग्रहणका भाव रहे नित दृष्टि न दोषों पर जावे ॥६॥ कोई 'बुगको या अच्छा, लक्ष्मी आवे या जावे । लाखा वर्षांतक जीऊं या मृत्यु आज ही आजावे ।। अथवा कोई कैसा ही भय या लालच देने आवे तो भीन्यायमार्गसे मेरा कभी न पद डिग: पावे ॥ ७॥ होकर मुखमें मन न फूले, दुखमें कमी न घबराये । पर्वत-नदी-मशान-भयानक अम्वीसे नहिं भय खावे ॥ ... रहे अडोल-अकंप निरन्तर, यह मन, हेहतर वन जावे। इष्टवियोग अनिष्टयोगमें सहनशीलता दिखलावे ॥८॥ सुखी रहें सब जीव जगतके, कोई कमी न घारावे। वैर-पाप-अभिमान छोड़ जग नित्य नये मंगल गवे ।। घरघर चचो रहे धर्मकी, दुष्कृत दुष्कर हा जावें। ज्ञान चरित उन्नतकर अपना मनुन-जन्मफलं सब पावें ॥९॥ ईति-भीति व्याप नहिं जगमें, दृष्टि समय पर हुआ 'करे।