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"जैनासिद्धांतसंग्रह |
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इडिविधि जो सरधा तत्त्रनकी, सो समकित व्यवहारी ॥1.. देव जिनेन्द्र गुरु परिग्रह बिन, धर्मदयायुत सारो । यह मान समतिको कारण, अष्ट अङ्ग जुत घारो ॥ १० ॥ नसुमद टारि निवारि त्रिशठता, पटू अनायतन त्यागी । - शंकादिक बसु दोष विना सं-वेगादिक चित पागो ॥ अष्टअङ्ग अरु दोष पचीसों, अब संक्षेपै कहिये । बिन जाने तैं दोष गुननको, कैसे ताजिये गहिये ॥ ११ ॥ जिन बचमै शंका न धार वृष, भवसुख वांछा भानै । . मुनितन देख मलिन न धिनावै, तत्त्वकुतत्त्व पिछाने | निजगुण अरु पर औगुण ढाँके, वा निजधर्म बढ़ावै । कामादिक कर वृषतें चिगते, निज परको सु दिढ़ावै ॥ १२ ॥ धर्मीसो गौ वच्छ प्रीति सम, कर जिन धर्म दिपावै । इन गुणतें विपरीत दोष बसु तिनकों सतत खिपावै ॥ पिता भूप वा मातुल नृप जो, होय न तो मद ठाने । मद न रूपको मदन ज्ञानको, धनबलको मद भानै ॥ १६ ॥ तपको मद न मद प्रभुताको, करे न सो निज जानै । मद घौरे तो यही दोष बसु, समकितकूं मल ठानै ॥ - कुगुरु कुदेव कुवृष सेवककी, नहि प्रशंस उचरे है। जिन मुनि जिन श्रुति विन कुगुरादिक, तिन्हें न नमन करे है ॥ दोष रहित गुण सहित सुधी जे, सम्यक्दर्श सने हैं । ... चरित मोहवश लेश न संज़म, पै सुरनाथ ननै हैं ॥
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गेही पै गृहमें न रचै ज्यों, जलमें भिन्न कमक 1 नगरनारिको प्यार यथा कां-देमें हेम अमल है ।। ११ ।।