________________
७८
सिद्धांतसंग्रह। उत्तम मध्यम जघन त्रिविधिके, अन्तरआतम ज्ञानी। द्विविधि संग बिन शुध उपयोगी, मुनि उत्तम निजध्यानी ॥ . मध्यम अन्तर आवम हैं जे. देशप्रती आगारी । जघन कहे अविरत समदृष्टि. तीनों शिवमगचारी ॥ सकल निकल परमातम दैविधि. तिनमें धाति निवारी। श्री अरहंत सकल परमातम, लोकालोक निहारी ॥५॥ ज्ञानशरीरी त्रिविधकममल, वर्जित सिद्ध महंता। ते हैं निकल अमल परमातम, भोगें शर्म अनन्ता । पहिरातमता हेय जानि वजि, अन्तरआतम हुने । 'परमातमको घ्याय निरन्तर, जो नित आनन्द पूजे ॥६॥ चेतनता विन सो अनीव है, पंच भेद ताके हैं। पुद्गल पंचवरण रस गंध दो, फरसबसू जाके हैं। जिय पुद्गलको चलन सहाई, धर्मद्रव्य अनरूपी । तिष्ठत होय अधर्म सहाई, बिन बिन मूर्ति निरूपा ॥ ७ ॥ सकलद्रव्यको वास नासमे, सो आकाश पिछानो। नियत वर्तना निशिदिन सो. व्यव-हार काल परिमानो। यो अनीव अब आश्रव सुनिये, मन वच काय त्रियोगा। मिथ्या अविरत अरु पाय पर-माद सहित उपयोगां ॥ ८॥
ये ही मामला दुखकारण, लाने इनको तजिये। . नीव प्रदेशाधाविधिसों सो बंधन कबहुँ न सजिये।
शमदमते जो कर्म न आवै, सो संबर आदरिये । तप पलते विधि झरन निर्जरा, वाहि सदा आचरिये ॥९॥ सकलकर्मते रहित अवस्था, सो शिव थिर मुखकारी।