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जैनसिद्धांतसंग्रह। द्वितीय ढाल-परीछंद १५ मात्रा। ऐसे मिथ्या हग ज्ञान चर्ण । वश अमत भरत दुःख जन्म मर्ण । ताते इनको तनिये सुनान । सुन तिन संक्षेप कहूं वखान ॥१॥ नीवादि प्रयोजनमूततत्व । सरधै तिन मांहिं विपर्ययत्व ॥ . चेतनको है उपयोग रूप। विन मूरति चिन्मरति अनूप ॥ पुद्गल नम धर्म अधर्म काल । इनते न्यारी है जीवचाल ॥ ताकू न जान विपरीति मान । करि कर देहमें निजपिछान ॥३॥ मैं सुखी दुखी में रंक राव । मेरो धन गृह गोधन प्रभाव ॥ मेरे सुत तिय मैं सबल दीन । रूप सुभग मूरख प्रवीन ॥३॥ तन उपनत अपनी उपजजान । तन नशत आपको नाश मान । रागादि प्रगट ये दुःख दैन । तिनहीको सेवत गिनत चैन | शुम अशुम बंधके फल मंझार। रति अरति करे निजपद बिसार। आतम हित हेतु विराग ज्ञान । ते लखे आपकू कष्ट दान ॥॥ रोके न चाह निन शक्ति खोय । शिवरूप निराकुलता न जोय । याही प्रतीतियुत कछुक ज्ञान । सो दुखदायक अज्ञान जान॥ इन जुत विषयनिमें जो प्रवृत्त । ताकू जानो मिथ्याचरित्त ।। यो मिथ्यात्वादि निसर्ग नेह। अव जे गृहीत सुनिये सुतेह । ॥ जो कुगुरु कुदेव कुधर्म सेव । पोखें चिर दर्शन मोह एव ।। अन्तर रागादिक धेरै नेह । बाहर धन अवर सनेह ॥९॥ -धारें कुलिंग लहि महत भाव । ते कुगुरु जन्म जल उपलनाव । जे रागद्वेष मलकर मलीन । वनिता गदादिजुत चिन्ह चीन्ह ॥१० तेहे कुदेव तिनकी जु सेव । शठ करत न तिन भवनमणछेव । -रागादिभाव हिंसा समेत । दर्षित सथावर मरण खेत ॥१.१॥ .