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जैनसिद्धांतसंग्रह। लट पिपील अलि आदि शरीर । घरघर मरो सही बहुपीर ।।' कबहूँ पंचेंद्रिय पशु भयो । मन बिन निपट अज्ञानी थयो ॥ . सिंहादिक सेनी है कूर । निबल पशू हत खाए भूर ॥६॥ कबहूँ आप भयो बलहीन । सबलनकर खायो अति दीन ।।. छेदन भेदन भूख प्यास | भार बहन हिम आतप त्रास ॥७॥ वध बंधन आदिक दुख घनैं । कोट जीमकर नात न भनें ।। अतिसंक्लेश भावतें मरो। घोर शुभ्र सागरमें परो॥॥ वहाँ भूमि परसत दुख इसो । बीछू सहस डसे नहिं तिसो ॥ तहाँ राध श्रोणित वाहिनी । क्रमि कुल कलित देह दाहिनी ॥९ सेमरतरु जुत दल असिपत्र । असि ज्यों देह विदारें तत्र ॥ मेरुसमान लोड गलिजाय । ऐसी शीत उप्णता थाय ॥ १० ॥ तिल तिल करें देहके खंड । असुर मिड़ावें दुष्ट प्रचंड ॥ सिंधु नीरतें प्यास न जाय । तो पण एक न बूंद लहाय ॥११॥ तीन लोकको नाज नो खाय । मिटै न भूख कणा न लहाय ॥ ये दुख बहु सागरलों सहै। कर्मयोगते नरगति लहै ॥ १२ ॥ जननी उदर वसो नवमास, अंग सकुचतें पाई त्रास ॥ निकसत में दुख पाये घोर, तिनको कहत न आवे ओर ॥१॥ बालपने में ज्ञान न लह्यो। तरुण समय तरुणी रत रह्यो । अर्द्धमृतक सम बूढापनो। कैसे रूपलखै आपनो ॥ १४ ॥ कभी अकामनिर्जरा करै । भवनत्रिकमें सुर-तन धरै॥ विषय-चाह-दावानल दह्यो। मरत विलाप करत दुःख सहो ॥ १.६॥ जो विमानवासी इ थाय । सम्यक्दशनविन दुख .पाय..... तहते चय थावर तन धेरै। यों परिवर्तन. पूरे करै,॥ १६.. .