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जैनसिद्धांतसंग्रह ... [६७
कुनि करहिं मेघकुमार गंधोदक सुवृष्टि सुहावनी । पदकमलतर सुर खिपहिं :कमल सु. धरण शशिशोभा बनी ॥
अमलं गगन तल अरु दिशि तहँ अनुहारहीं। चतुरनिकायःदेवगण, जय जयकारहीं।। धर्मचक्र चले आगे, रवि नहँ लाजहीं : .
फुनि श्रृंगार-प्रमुख वसु, मंगल राजहीं ॥ राजहीं चौदह चारु अतिशय. देवरचित सुहावने । जिनराज केवलज्ञानमहिमा, अवर कहत कहा वने ॥ तब इंद्र आनि किया महोच्छव समा शोमित अति वनी ॥ धर्मोपदेश कियो तहां, उच्छरिय वानी जिनतनी ॥ ॥
क्षुषा तृषा अरु राग, द्वेष असुहावने । जनम जरा अरु मरण, त्रिदोष भयावने । रोग शोक भय विस्मय, अरु निद्रा धणी। ।
खेद स्वेद मद मोह, अरति चिंता गणी ॥ .. ' -गणीये अठारह दोष तिनकरि, रहित देव निरंजनो ।. 'नव परमकेवललब्धिमंडित, शिवरमणी-मनरंजनो ॥
श्रीज्ञानकल्याणक सुमहिमा, सुनत सब सुख पावहीं । जन 'रूपचंद्र' सुदेव जिनवर, जगत मंगल गावहीं ॥२१॥
श्री निर्वाणकल्याणक । केवलदृष्टि चराचर, देख्यो जारिसो।। भविननप्रति उपदेश्यो, निनवर वारिसो ॥ भवभयभीत महाजन शरण आइया । . . .