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जैना-द्धांतसंग्रह 1
कृनि भवन व्यंतर नभग सुर नर पशुनि कोठे बेठिया ॥१६॥ मध्यप्रदेश तीन, यणिपीठ वहां बने । गंधकुटी सिंहासन, कमल लुहावने ॥ तीन छत्र सिर शोभित त्रिभुवन मोहए । अंतरीक्ष कमलासन प्रनु तन सोहए | सोहए चौसठि चमर हरत, अशोकतर तल झनए । कृति दिव्यधुनि प्रविशद जुत तह, देवदुंदुमि वानए । सुरपुहुपवृष्टि सुप्रभामंडल, कोटि रवि छवि लानए । इम मष्ट अनुपम प्रातिहार, वर विभूति विराजए ॥ ७॥ दुवै योवनमान सुमिच्छ चहूं दिशी । गगन गन्न वरु प्राणि, -वघ नहिं महनिशी ॥ निरुपसर्ग निराहार. सदा नगद्दीलए ।
आनन चार चहूदिशि, शोभित दसिए ॥ दास अशेष विशेष विद्या, विभव वर ईसुरपनो । छाया विवर्जित शुद्ध फटिक, मनान तन प्रभुको बनो ॥ नहिं नयन पटक पतन कदाचित केशनख सम छामहीं । ये वानियाहयजनित अतिशय, दश विचित्र विराम्हीं ॥१८॥ सकल जरयनय नागा, भाषा जानिये | सकल जीवगत मैत्री,-भाव बखानिये ॥ सकल अतुज फरफूल, वनस्पति नन हरै ।
दर्पणसन मनि अवनि, पचन गति अनुसरे ॥
अनुसरें परमानंद सत्रो, नारि नर जे सेवता योजन प्रमाण घरा कुमार्जार्ह, जहां मास्त देवता