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________________ ५८] जैनसिद्धांतसंग्रह। रत्नत्रयलच्छंन शिवपंथनि लाइयाँ । लाइया पंथ जु भव्य फुनि, प्रभु तृतिय शुकल जु पूरियो। तानि तेरहों गुणथान योग, अयोगपथपग धारियो । फुनि चौदहें चौथे सुकलबल, बहत्तर तेरह हती। इमि धाति वसुविधि कर्म पहुंच्यो, समयमें पंचमगती ॥१२॥ लोकशिखर तनुवात, बलयमहं संठियो। धर्मदव्यविन गमन न, निहिं आगे कियो । मयनरहित भूपोदर, अंबर जारिसों। . किमपि हीन निजतनुते, भयौ प्रभु तारिसों। वारिसों पर्भय नित्य अविचल, अर्थपर्जय क्षणक्षयी । निश्चयनयेन अनंतगुण पिवहार, नय वसु गुणमयी । वस्तु स्वभाव विभावविरहित, शुद्ध परणति परिणयो । चिद्रूप परमानंदमंदिर, सिद्ध परमातम भयो ॥ २३ ॥ तनपुरमाणु दामिनिवत् सब खिर गये। रहे शेपं नसकेशरूप, ने परिणये ॥ तब हरिप्रमुख चतुरविषि, सुरंगण शुभं संच्यो।' मायामई नखकेशरहित, भिनतन रच्यो । राच अगर चंदनप्रमुख परिमल द्रव्य मिन जयकारियो। पदातित् अगनिकुमारमुकुटानल, सुविधि संस्कारियो । निर्वाणकल्याणक सुमहिमा, सुनत सव सुख पावहीं। जन रूपचंद्र' सुदेव निनवर, जगत् मंगल गावहीं ॥२४॥ मंगल गीत। . , मैं मविहीन भक्तिवश, भावन भाइया ।। :
SR No.010309
Book TitleJain Siddhanta Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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